________________
३३४ : सम्बोधि
चख लिया है, वह फिर उससे भिन्न जी नहीं सकता । जो केवल बाहर से सम्यक्त्व का चोला पहन लेते हैं, उनका जीवन इनसे मेल नहीं खाता । वे अपने स्वार्थ के लिए अन्यथा आचरण कर धर्म को भी दूषित कर देते हैं । सम्यक्त्व के ये भूषण उसके शरीर की आभा को और प्रस्फुटित कर देते हैं । सौम्यता, सौहार्द, करुणा, निश्छलता और सत्यपूर्ण व्यवहार धर्म की शोभा में चार चांद लगा देते हैं ।
भारवाही यथाश्वासान्, भाराक्रान्तोऽश्नुते यथा । तथारम्भभराक्रान्त, आश्वासाञ्च श्रावकोऽश्नुते ॥६॥
६. जिस प्रकार भार से लदा हुआ भारवाहक विश्राम लेता है, उसी प्रकार आरम्भ (हिंसा) के भार से आक्रान्त श्रावक विश्राम लेता है।
इन्द्रियाणामधीनत्वाद्,
वर्ततेऽवद्यकर्मणि ।
तथापि मानसे खेदं ज्ञानित्वाद् वहते चिरम् ॥७॥
-
७. इन्द्रियों के अधीन होने के कारण वह पापकर्म – हिंसात्मक क्रिया में प्रवृत्त होता है, फिर भी ज्ञानवान् होने के कारण वह उस कार्य में आनन्द नहीं मानता, किन्तु मन में खिन्न रहता है ।
आश्वासः प्रथमः सोऽयं, शीलादीन् प्रतिपद्यते । सामायिकं करोतीति, द्वितीयः सोऽपि जायते ॥ ८ ॥
८. व्रत आदि स्वीकार करना श्रावक का पहला विश्राम है। - सामायिक करना दूसरा विश्राम है ।
प्रतिपूर्ण पौषधञ्च, तृतीयः स्याच्चतुर्थकः । संलेखनां श्रितो यावज्जीवमनशनं सृजेत् ॥ ६ ॥
६. उपवासपूर्वक पौषध तैयार करना तीसरा विश्राम और -संलेखनापूर्वक आमरण अनशन करना चौथा विश्राम है ।
मकान, धर्मशाला, वृक्ष, नदी-तट आदि शारीरिक विश्राम स्थल है । धर्म
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org