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३३२ : सम्बोधि
बैठ गया। अचानक उठा और तीर उठाकर चल दिया। गुरू ने कहा-हो गया काम । इतने दिन प्रयत्न में था, आज अप्रयत्न में ।' साधक के लिए यह बहुत बड़ा पाठ है जो उसे पढ़ना है।
यथाहारादि कर्माणि, भवन्त्यावश्यकानि च । तथात्माराधनं चापि, भवेदावश्यक परम् ॥२॥
२. जिस प्रकार भोजन आदि क्रियाएं आवश्यक होती हैं उसी प्रकार आत्मा की साधना करना भी अत्यन्त आवश्यक होता है।
सद्यः प्रातः समुत्थाय, स्मृत्वा च परनेष्ठिनम् । प्रातः कृत्यान्निवृत्तः सन्, कुर्यादात्मनिरीक्षणम् ॥३॥
३. सबेरे जल्दी उठकर नमस्कार मंत्र का स्मरण कर, शौच आदि प्रातः कृत्य (सबेरे करने योग्य कार्यों) से निवृत्त होकर आत्मनिरीक्षण करे।
आत्म-निरीक्षण के लिए एक कवि ने कहा है--'सूर्य जीवन का एक भाग लेकर चला जा रहा है। उठो और देखो आज कौन सा सुकृत काम किया है। यह धर्म का एक अंग है। सबके लिए इसकी अपेक्षा है। किन्तु एक धार्मिक व्यक्ति के "लिए अति आवश्यक है। आत्मदर्शन के बिना वृत्तियों का परिमार्जन नहीं होता। इसके लिए तीन चिन्तन हैं :
१. मैंने क्या किया है ? २. मेरे लिए क्या करना बाकी है ? २. ऐसा कौन-सा कार्य है जिसे मैं नहीं कर सकता?
जैसे शरीर के लिए आवश्यक कार्य किए जाते हैं वैसे आत्मा के लिए भी होने चाहिए। एक विचारक ने कहा है---मनुष्य शरीर को खुराक देता है, किन्तु आत्मा को नहीं।' आत्मा को बिना भोजन दिए मनुष्य का जीवन अन्त में अर्थहीन सिद्ध होता है। उसमें रस उत्पन्न नहीं होता। आदमी करीब-करीब मरा हुआ जीता है। इसीलिए यहां कहा गया है कि अपने को देखो, जानो।
मैं कौन हूँ? कहां से आया हूं ? क्या है जीवन का उद्देश्य ? क्या मैं उसकी 'पूर्ति का प्रयत्न कर रहा हूं? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो स्वयं से पूछने को हैं। उत्तर की जल्दी नहीं करना है, प्रश्नों की प्यास बढ़ानी है।
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