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________________ ३१८ : सम्बोधि को स्वीकार नहीं है। स्थितप्रज्ञ और अनासक्त के लक्षणों को देखने से लगता है, वह एक उच्च सीमा की अनासक्ति है, जहां राग, द्वेष, मोह आदि को स्थान नहीं है। मन और इन्द्रियों का भी बहिर्मुखता में अवकाश नहीं है । आत्मा क्रमशः स्वयं में ही विलीन हो जाती है। परमाप्नोति पुरुषः'-आत्मा परमात्मा बन जाती है। परमात्म-दशा वीतराग दशा है, वहां कर्म का प्रवाह मंदतम होता है। शरीर-त्याग की स्थिति में वह सर्वथा रुक जाता है। सम्यगदृष्टेरिदं सारं, नानथं यत्प्रवर्तते। प्रयोजनवशाद् यत्र, तत्र तद्वान्न मूर्छति ॥२६॥ २६. सम्यग्दृष्टि बनने का यह सार है कि वह अनर्थ (प्रयोजन बिना) हिंसा में प्रवृत्त नहीं होता और प्रयोजनवश जो हिंसा करता है उसमें भी आसक्त नहीं होता। सम्मतानि समाजेन, कुर्वन् कर्माणि मानसम् । अनासक्तं निदधीत, स्याल्लेपो न यतो दृढः॥२७॥ २७. समाज द्वारा सम्मत कर्म को करता हुआ व्यक्ति मन को अनासक्त रखे जिससे वह उसके दृढ़-लेप से लिप्त न हो। अविरतिः प्रवृत्तिश्च, द्विविधं बन्धनं भवेत् । प्रवृत्तिस्तु कदाचित् स्यादविरतिनिरन्तरम् ॥२८॥ २८. बन्धन दो प्रकार के हैं-अविरति और प्रवृत्ति । प्रवृत्ति कभी-कभी होती है, अविरति निरन्तर रहती है। दुष्प्रवृत्तिमकुर्वाणो, लोकः सर्वोऽप्यहिंसकः । परन्त्वविरतेस्त्यागान्, मानवः स्यादहिंसकः ॥२६॥ २६. दुष्प्रवृत्ति नहीं करने वाला अहिंसक होता है तो सारा संसार ही अहिंसक है क्योंकि कोई भी व्यक्ति निरन्तर दुष्प्रवृत्ति नहीं करता। परन्तु अहिंसक वह होता है जो अविरति का त्याग करे, अर्थात् कभी और किसी प्रकार की हिंसा न करने का दृढ़ संकल्प करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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