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________________ ३१६ : सम्बोधि प्रवृत्ति करनी चाहिए । असत् की निवृत्ति होते-होते एक दिन सत् की भी निवृत्ति हो जाती है । मेघः प्राह- कुर्वन् कृषिञ्च वाणिज्यं, रक्षां शिल्पं पृथग् विधम् । कथं सतीं प्रवृत्तिञ्च, गृहस्थं कर्तुमर्हति ॥२०॥ २०. मेघ बोला - कृषि, वाणिज्य, रक्षा, शिल्प आदि विभिन्न प्रकार के कर्म करता हुआ गृहस्थ सत्प्रवृत्ति कैसे कर सकता है ? भगवान् प्राह अर्थजानर्थजा चेति, हिंसा प्रोक्ता मया द्विधा । अनर्थजां त्यजन्नेष, प्रवृत्ति लभते सतीम् ॥ २१॥ २१. भगवान् कहा- मैंने हिंसा के दो प्रकार बतलाए हैं(१) अर्थजा ( २ ) अनर्थजा । गृहस्थ अनर्थजा हिंसा का परित्याग सहज ही कर सकता है और जितनी मात्रा में वह उसका त्याग करता है उतनी मात्रा में उसकी प्रवृत्ति सत् हो जाती है । आत्म ज्ञातये तद्वद्, राज्याय सुहृदे तथा । या हिंसा क्रियते लोकैरथंजा सा किलोच्यते ॥२२॥ २२. अपने लिए, परिवार, राज्य और मित्रों के लिए जो हिंसा की जाती है, वह अर्थ जा हिंसा कहलाती है । परस्परोपग्रहो हि, समाजालम्बनं भवेत् । तदर्थं क्रियते हिंसा, कथ्यते सापि चार्थजा ॥ २३ ॥ २३. परस्पर एक-दूसरे का सहयोग करना समाज का आधारभूत तत्त्व है । इस दृष्टि से समाज के लिए जो हिंसा की जाती है, उसे भी अर्थजा हिंसा कहा जाता है । कुर्वन्नप्यर्थंज हिंसां, नासक्तिं कुरुते दृढाम् । तदानों लिप्यते नासौ, चिक्कणैरिह कर्मभिः ॥२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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