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३१० : सम्बोधि
'सूके और गोले दो मिट्टी के गोले हैं। दोनों को भीत पर फेंका जाता है, जो सूका होता है वह भीत पर नहीं चिपकता, किन्तु जो गीला है वह चिपक जाता
यह आसक्ति का स्वरूप है। आसक्ति स्नेह है। स्नेह पर रजकण चिपकते हैं, अनासक्त पर नहीं। वस्तुएं निर्जीव हैं, उनमें न बन्धन है और न मुक्ति । बन्धन व मुक्ति आशा और अनाशा में है।
पदार्थ-त्यागमात्रेण, त्यागी स्याद् व्यवहारतः। आशायाः परिहारेण, त्यागी भवति वस्तुतः ॥५॥
५. जो व्यक्ति केवल पदार्थों का त्याग करता है, किन्तु उसकी वासना का त्याग नहीं करता वह व्यवहार-दृष्टि से त्यागी है, वास्तव में नहीं। वास्तव में त्यागी वही है जो आशा का त्याग करता है ।
पूर्णस्त्यागः पदार्थानां, कतुं शक्यो न देहिभिः।
आशायाः परिहारस्तु, कर्तुं शक्योऽस्ति तैरपि ॥६॥
६. देहधारियों के लिए पदार्थों का सर्वथा परित्याग करना संभव नहीं होता किन्तु वे आशा का सर्वथा परित्याग कर सकते हैं।
यावानाशा-परित्यागः, क्रियते गेहवासिभिः । तावान् धर्मो मया प्रोक्तः, सोज्गारधर्म उच्यते ॥७॥
७. गृहस्थ आशा का जितना परित्याग करते हैं उसी को मैंने धर्म कहा है और वही अगार-धर्म कहलाता है।
शरीर की विद्यमानता में इन्द्रियां हैं और इन्द्रियों की सत्ता में विषयों का ग्रहण भी। किन्तु ये अपने आप में बन्धनकारक नहीं हैं। बन्धन का निमित्त हैआशा, इच्छा, अनुराग और आसक्ति। व्यक्ति इन्द्रिय-विषयों से उपरत नहीं हो सकता लेकिन उनमें जो आकर्षण है, इच्छा है, उसे वह छोड़ सकता है । आशात्याग ही धर्म है। गीता का अनासक्त-योग और जैन धर्म का आशा-त्याग एक ही है। किसी भी देहधारी आदमी के लिए कर्म का पूर्ण त्याग कर देना असम्भव है। परन्तु जो कर्मों के फलों को त्याग देता है वही त्यागी कहलाता है । आसक्ति त्याग का जिस मात्रा में अभ्यास है उसी मात्रा के अनुसार आत्मा धर्म या मोक्ष के सन्निकट है।
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