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आमुख
साध्य आत्मा है। उसका अधिकारी जैसा मुमुक्षु है वैसा गृहस्थी भी है । दोनों के लिए शर्त एक ही है कि वे आसक्ति से मुक्त हो । जहां आसक्ति है, वहां बन्धन है। साधना गृहस्थ के लिए कठोर है तो मुमुक्षु के लिए भी कठिन है। कठिनता का हेतु है-आसक्ति। गृहस्थ जीवन में अनासक्त होना कठिन ही नहीं किन्तु कठिनतम है। इसीलिए गृहस्थ जीवन को कर्म-बन्धन का मूल कहा है । यह उन्हीं के लिए है जो अनासक्त रहना नहीं जानते। जो जानते हैं उनके लिए वरदान भी होता है।
भागवत में कहा है-प्रमादी व्यक्ति यदि एकान्त में भी रहता है तो वह अपने साथ छह शत्रुओं को रखता है। जितेन्द्रिय और आत्मरमण करने वाले व्यक्ति का गहस्थाश्रम कुछ अहित नहीं कर सकता।
भगवान् महावीर की दृष्टि में भी यही है । यहां गृहस्थ-जीवन की उज्ज्वलता की ही चर्चा है । गहस्थ जीवन में रहता हुआ व्यक्ति किस प्रकार अपने गन्तव्य को प्राप्त कर सकता है, इसे पढ़ लेने पर मैं सोचता हूं गृहस्थ जीवन में धर्म की आराधना नहीं हो सकती, यह आशंका निर्मूल हुए बिना नहीं रह सकती।
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