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________________ २६८ : सम्बोधि __ केवल बाह्य साधनों से साध्य सिद्ध नहीं होता। इस श्लोक में उन एकान्तवासियों का खंडन है, जो यह कहते थे कि साधना जंगल में ही होती है, या नगर में ही होती है। भगवान महावीर ने दोनों का समन्वय कर साधना का क्षेत्र सबके लिए खोल दिया। न मुण्डितेन श्रमणः, न चौकारेण ब्राह्मणः। मुनि रण्यवासेन, कुशचीरैर्न तापसः ॥२३॥ २३. सिर को मूंड लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार को जप लेने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में निवास करने मात्र से कोई मुनि नहीं होता और कुश के बने हुए वस्त्र पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता। श्रमणः समभावेन, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः । ज्ञानेन च मुनिर्लोके, तपसा तापसो भवेत् ॥२४॥ २४. श्रमण वह होता है जो समभाव रखे। ब्राह्मण वह होता है जो ब्रह्मचर्य का पालन करे । मुनि वह होता है जो ज्ञान की उपासना करे और तापस वह होता है जो तपस्या करे । 'बालः पश्यति लिङ्ग, मध्यमबुद्धिर्विचारयति वृत्तम् । आगमतत्त्वं तु बुद्धः, परीक्षते सर्वयत्नेन । तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं (१) बाल-सामान्यजन, जो विवेक और बुद्धि से परिहीन है वह केवल बाह्यवेष-लिंग को देखता है। उसकी दृष्टि बाह्य आकार-प्रकार से दूर नहीं जाती। (२) मध्यम बुद्धि-वह कुछ परिपक्व होता है। बुद्धि गहरी तो नहीं किंतु व्यावहारिक दृष्टि में पटु होती है। वह देखता है आचार-विचार को । वह देखता है कि रीति-रिवाज, नियमों का जो ढांचा बना हुआ है, उस चौखटे में पूरा ठीक बैठता है या नहीं। (३) तीसरा जो ज्ञानी है, जिसने सत्य का स्पर्श किया है, जाना है कि बन्धन राग-द्वेष है, अध्यात्म समता है, राग-द्वेष की परिक्षीणता आत्म-रमण है, उसका परीक्षण यही होता है कि साधक कहां तक पहुंचा है ? उसका आकर्षण - बिन्दु-जगत् है या आत्मा ? अविद्या का बन्धन टूटा है या नहीं? वह यह नहीं देखता कि लिंग, चिह्न-वेष कैसा है ? आचरण कैसा है ? इनका महत्त्व बाह्य दृष्टि से है, अन्तर्दृष्टि से नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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