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२६६ : सम्बोधि
यावन्तो हेतवो लोके, विद्यन्ते बन्धनस्य हि। तावन्तो हेतवो लोके, मुक्तेरपि भवन्ति च ॥२०॥ २०. जितने कारण बन्धन के हैं उतने ही कारण मुक्ति के हैं।
कर्म परमाणु हैं। वे समस्त लोकाकाश में परिव्याप्त हैं। आत्म-प्रदेशों में उनके समागमन का मार्ग कोई एक नहीं है। वे सब ओर से आत्मा में आते रहते हैं। पूर्ण निवृत्त-निरोध-अवस्था में ही उनका आकर्षण नहीं होता; क्योंकि उस समय आत्मा की समस्त प्रवृत्तियों की चंचलता रुक जाती है। जहां प्रवृत्तियों का प्रवाह है वहां बन्धन भी है। प्रवृत्तियों के दो रूप हैं-अशुभात्मक और शुभात्मक । कहीं तीन प्रवृत्तियों का उल्लेख भी मिलता है-अशुभात्मक, शुभात्मक और शुद्धात्मक । अशुभात्मक प्रवृत्ति से अशुभ कर्म का संग्रह होता है और शुभ प्रवृत्ति से शुभ कर्म का । शुद्धात्मक प्रवृत्ति केवल आत्मा की शुद्ध अवस्था है । वस्तुतः वह प्रवृत्ति नहीं, किंतु आत्मा का मूल स्वभाव है। वहां कर्म का आकर्षण नहीं होता। आत्मा की शुभ और अशुभ प्रवृत्ति के साथ ही कर्म परमाणुओं का प्रवेश होना प्रारंभ हो जाता है।
बन्धन और मुक्ति सापेक्ष शब्द हैं। बन्धन का क्षय मुक्ति है और मुक्ति की अप्रवृत्ति बन्धन है। मुक्ति के और बन्धन के कारणों में कोई विशेष अन्तर नहीं होता । अन्तर इतना ही होता है कि एक को दूसरे रूप में बदलना होता है। स्थूल दृष्टि से दोनों बिलकुल विरोधी लगते हैं। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर आत्मोन्मुखी प्रवृत्ति ही बन्धन का विनाश है। बन्धन के कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। ये सब बहिरात्मा की प्रवृत्तियां हैं। आत्मा जब स्वरूपस्थ होती है तब उसकी प्रवृत्तियां बन जाती हैं-सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग। इनका भाव उनका अभाव है और उनका भाव इनका अभाव।
सर्वे स्वरा निवर्तन्ते, तर्कस्तत्र न विद्यते। ग्राहिका न मतिस्तत्र, तत् साध्यं परमं नृणाम् ॥२१॥
२१. जिसे व्यक्त करने के लिए सारे स्वर-शब्द अक्षम हैं, तर्क की जहां पहुंच नहीं है, बुद्धि जिसे पकड़ नहीं सकती, वह (आत्मा) मनुष्यों का परम साध्य है। ___इस श्लोक में आत्म-स्वरूप का प्रतिपादन है। आत्मा अमूर्त है। वह शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं हो सकती। वह अनुभूतिगम्य है । उसे तर्क द्वारा सिद्ध नहीं किया
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