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________________ २८४ : सम्बोधि ९. संयम से आवरण, विघ्न, दृष्टिमोह और चारित्र मोह का निरोध होता है। इसलिए वह आत्मा की प्राप्ति-साध्य की सिद्धि का साधन है। __ अनन्त ज्ञान, अनन्त श्रद्धा, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति-यह आत्मा का मूल स्वभाव है । यह स्वभाव कर्म से तिरोहित-ढंका रहता है। जब तक स्वभाव का अनावरण न हो तब तक आत्मा भ्रान्त रहती है। वह पर-वस्तु को स्वकीय मान लेती है और स्व-वस्तु को परकीय । इसलिए यह अपेक्षित होता है कि यह आवरण हटे। प्रकाश के सद्भाव में तम की दीवार ढह जाती है। आवरण को हटाने की अपेक्षा प्रकाश को प्रकट करना जरूरी है। साधक आवरण हटाता नहीं। आवरण हटता है। वह स्वभाव को जागृत करता है। आवरण विलीन हो जाता है। स्वभाव जागरण की प्रक्रिया है संयम । संयम का अर्थ है-इन्द्रिय-विजय और मन'विजय। जब वह संयम अनुत्तर होता है, तब साध्य सिद्ध हो जाता है। आत्मानं संयतं कृत्वा, सततं श्रद्धयान्वितः। आत्मानं साधयेच्छान्तः, साध्यं प्राप्नोति स ध्रुवम् ॥१०॥ १०. जो श्रद्धा-सम्पन्न पुरुष अपने को संयमी बना आत्मसाधना करता है वह शान्त-कषाय-रहित पुरुष साध्य को प्राप्त होता है। साध्य को प्राप्त करने के लिए तीन उपायों का अबलम्बन करना होता है-संयम, श्रद्धा और शम । श्रद्धा के अभाव में संयम का स्वीकर नहीं होता। संयम भौतिक सुख-सुविधा का त्याग है। वह तब ही होता है जब कि मन आत्मलीन होता है । संयम के द्वारा मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाएं नियन्त्रित हो जाती हैं। शम संयम से भिन्न नहीं है। शम का अर्थ है--कषाय-विजय, लेकिन -साधना के प्राग अभ्यास के लिए इसका पृथक रूप से उल्लेख किया है, जिससे कि -साधक सतत सावधान रहे कि मुझे कषाय-विजयी होना है। आत्मैव परमात्मास्ति, रागद्वेषविजितः। शरीरमुक्तिमापन्नः, परमात्मा भवेदसौ ॥११॥ ११. आत्मा ही परमात्मा है । वह राग-द्वेष और शरीर से मुक्त होकर परमात्मा हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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