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साध्य-साधन-संज्ञान
मेघः प्राह
कि साध्यं साधनं किञ्च, केन तन्नाम साध्यते । साध्यसाधनसंज्ञाने, जिज्ञासा मम वर्तते ॥१॥
१. मेध बोला.–साध्य क्या है ? साधन क्या है ? साध्य की साधना कौन करता है ! भगवन ! मैं साध्य और साधन के विषय को जानना चाहता हूं।
भगवान् प्राह
प्रश्नो वत्स ! दुरूहोऽयं, नानात्वेन विभज्यते । नानारुचिरयं लोको, नानात्वं, प्रतिपद्यते ॥२॥
२. भगवान् ने कहा-वत्स! यह प्रश्न दुरूह है । यह अनेक प्रकार से विभक्त होता है। लोग भिन्न-भिन्न रुचि वाले होते हैं। अत: साध्य भी अनेक हो जाते हैं ।
मार्ग विविध हैं और उनके प्रर्वतक भी विविध हैं। जीवन का लक्ष्य एक होते हुए भी प्रवर्तकों की दृष्टि से उसमें भिन्नता आ जाती है । कुछ व्यक्ति आस्थावान होते हैं और कुछ अनास्थावान । कुछ ज्ञानवादी होते हैं पर आचारवान नहीं। कुछ आचार पर बल देते हैं तो ज्ञान पर नहीं। कुछ मोक्ष, स्वर्ग और नरक को केवल धार्मिकों की कल्पना मात्र कहकर उसका मखौल उड़ाते हैं । कुछ 'अस्ति चेन् नास्तिको हतः' कहते हैं। यदि मोक्ष आदि है तो बेचारे नास्तिक का क्या होगा? आत्मा को न मानने वाले कर्म का फल भी नहीं मानते हैं । अतः उनका
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