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________________ ६२७४ : सम्बोधि गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा - "भंते ? दर्शन-सम्पन्नता का क्या लाभ है ?" भगवान् ने कहा- गौतमः ! दर्शन-सम्पन्नता से विपरीत दर्शन का अन्त होता है | दर्शन सम्पन्न व्यक्ति यथार्थद्रष्टा बन जाता है । उसमें सत्य की लौ जलती है, वह फिर बुझती नहीं । वह अनुत्तरज्ञान से आत्मा को भावित करता रहता है । यह आध्यात्मिक फल है । व्यावहारिक फल यह है कि सम्यग्दर्शी देवगति के सिवाय अन्य किसी गति का आयुष्य नहीं बांधता ।" योगी व्रतेन सम्पत्वो न लोकस्यैषणाञ्चरेत् । भावशुद्धिः क्रियाश्चाषि प्रथयन् शिवमश्नुते ||५|| ५६. महाव्रतों से सम्पन्न योगी लोकैषणा में नहीं फंसता । वह मानसिक-शुद्धि और सत्क्रियाओं का विस्तार करता हुआ मोक्ष को प्राप्त होता है । न क्षीयन्ते न वर्धन्ते, सन्ति जीवा अवस्थिताः । अजीवो जीवतां नैति, न जीवो यात्यजीवताम् ॥ ६० ॥ ६०. जीव अवस्थित हैं, न घटते हैं और न बढ़ते हैं । अजीव 'कैभी जीव नहीं बनता और जीव कभी अजीव नहीं बनता । अवस्थानमिदं ध्रौव्यं, द्रव्यमित्यभिधीयते । परिवर्तनमत्रैव, पर्यायः परिकीर्तितः ॥ ६१ ॥ ६१. अवस्थान को धौव्य कहा जाता है और इसी में जो परिकर्तन होता है उसे पर्याय कहा जाता है । धौव्य और परिवर्तनदोनों द्रव्य के अंश हैं । द्रव्य का अर्थ है- इन दोनों की समष्टि । एक बार गौतम ने पूछा "भगवन् ! तत्त्व क्या है ?" भगवान् ने कहा “उत्पाद तत्त्व है।” गौतम की समस्या सुलझी नहीं । उन्होंने फिर पूछा “भगवन् ! तत्त्व क्या है ?" भगवान् ने कहा - "विनाश तत्त्व है ।” अभी भी मन सुसाहित नहीं हुआ। तीसरी बार, गौतम ने पूछा, "भगवन् ! तत्व क्या है ?" भगवान् ने कहा – “ध्रुव तत्त्व है ।" उत्पाद, व्यय और धीव्य - यह तत्त्व त्रयी है । गौतम गणधर ने इसी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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