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________________ अध्याय १२ : २६६ दिया और अब यह क्या कह रहे हो? जिन्दगी की सारी प्रतिष्ठा धूल में मिला रहे हो?' मौनीज ने कहा, 'मैं जानता हूं। किन्तु अभी प्रश्न वैयक्तिक है। मूसा यह नहीं पूछेगा कि तुम मूसा क्यों नहीं हुए। वह पूछेगा कि तुम मौनीज क्यों नहीं हुए ? स्वयं का होना बोधि है। जीवन में सब कुछ पाकर भी जिसने बोधि नहीं पाई, उसने कुछ नहीं पाया और बोधि पाकर जिसने कुछ नहीं पाया उसने सब कुछ पा लिया। मरने के बाद सब कुछ छूट जाता है, खो जाता है, वह हमारी अपनी सम्पत्ति नहीं है। संबोधि अपनी सम्पत्ति है, उसे खोजना है। अनेक-अनेक योनियों में पैदा हुए और मरे, किन्तु स्वयं के अस्तित्व को नहीं पहचाना। जन्म के पूर्व और मरने के बाद भी जिसका अस्तित्व अखण्ड रहता है, उसकी खोज में निकलना बोधि भावना का अभिप्राय है। आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है-भावनाओं में रमण करता हुआ साधक इसी जीवन में दिव्य मुक्तानन्द का स्पर्श कर लेता है। कषायाग्नि शान्त हो जाती है, पर-द्रव्यों के प्रति जो आसक्ति है वह नष्ट हो जाती है, अज्ञान का उन्मूलन होता है और हृदय में बोध-प्रदीप प्रज्वलित हो जाता है। बारह भावनाओं के अतिरिक्त चार भावनाओं का और उल्लेख मिलता है । वे है- (१) मैत्री (२) प्रमोद (३) करुणा (४) उपेक्षा । बुद्ध ने इन चारों को 'ब्रह्म बिहार' कहा है। पतंजली ने-मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् ।' सुख, दुःख, पुण्य और पाप-इन भावों के प्रति क्रमशः मित्रता, करुणा, आनन्द, प्रसन्नता और उपेक्षा का भाव धारण करने से चित्त प्रसन्न होता है, ऐसा कहा है। (१) मैत्री भावना-मनुष्य के ज्ञात सम्बन्धों की कड़ी बहुत छोटी है और अज्ञात की श्रृंखला बहुत प्रलम्ब है। ज्ञात स्पष्ट है और अज्ञात अस्पष्ट, इसलिए शत्रु-मित्र आदि की कल्पनाएं खड़ी होती हैं। अज्ञात सामने आ जाए तो ये भाव स्वतः शान्त हो सकते हैं। जन्म-मृत्यु की लम्बी परम्परा में कौन अपरिचित है ? किन्तु इसे साधारण लोग नहीं समझते । साधक आत्म-तुला के पथ पर अग्रसर होता है, उसे यह स्पष्ट हो जाए तो बहुत अच्छा है, किन्तु बहुत कम व्यक्तियों को अतीत ज्ञात होता है । लेकिन इतना स्पष्ट है कि मैं पहले भी था, अब भी हूं और आगे भी रहूंगा। अतीत में था तो कहां था, कौन मेरे संबन्धी थे, आदि प्रश्न स्वतः खड़े हो जाते हैं। इस दृष्टि से साधक का मन सबके प्रति मित्रभाव धारण कर लेता है। 'मित्ति मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झ न केणईव'-मेरा सबके साथ मैत्री-भाव है। कोई मेरा शत्रु नहीं है।' अन्तश्चेतना से जैसे-जैसे यह भाव ' पुष्ट होता जाता है वैसे-वैसे साधक के मन में शत्रुता का भाव नष्ट होता चला १. ज्ञानार्णव, २. भावनोपसंहार १-२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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