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________________ २६४ : सम्बोधि अनित्य है किन्तु उसका अनुभव करे और उसके साथ अन्तःस्थित अपरिवर्तनीय आत्मा की झलक भी पाये। (२) अशरण भावना---यह भावना हमारे उन संस्कारों पर प्रहार करती है जो बाहर का सहारा ताकते हैं। यदि मनुष्य की समझ में यह तथ्य आ जाए कि अंततः मेरा कोई शरण नहीं है, तब सहज ही बाह्य वस्तु-जगत् की पकड़ ढीली हो जाये। अन्यथा आदमी धन, परिवार, स्त्री, पुत्र, मित्र, मकान आदि सबको पकड़ता है। वह समझता है कि अन्त में कोई न कोई मुझे अवलम्बन देगा। यह भ्रम ही संग्रह का हेतु बनता है। धर्म कहता है---'कोई त्राण नहीं है। छोड़ो अपनी पकड़। क्यों व्यर्थ ममत्व, मोह और पाप का संग्रह करते हो । बस, सिर्फ पकड़ छोड़ दो । जीवन से भागने की जरूरत नहीं । वाल्मीकि ने जब जाना तब एक क्षण में उससे मुक्त हो गया। अनाथी मुनि ने जब देखा-कोई मुझे रोग से मुक्त नहीं कर पा रहा है। सब असफल हो गये। तव दृष्टि भीतर की तरफ मुड़ी और देखा-जो है, रोग उससे दूर है। मृत्यु दूर है, सब कुछ दूर है तो क्यों नहीं उसे ही अपना शरण बनाऊं । वह उसकी खोज में चला गया। सम्राट् श्रेणिक ने कहा'में तुम्हारा मालिक बनूंगा।' अनाथी मुनि ने कहा-'तुम मेरे मालिक क्या बनोगे? पहले अपने खुद के मालिक बनो। अभी जिनके मालिक हो उनके गुलाम भी हो। मैंने मालिक खोजा, वह अपने भीतर है। जिस दिन तुम भी खोज लोगे, मालकियत टूट जाऐगी और एक नई मालकियत का जन्म होगा।" डेनमार्क के एक विचारक ने लिखा है-'असली चिन्ता तो तब पकड़ती है जब तुम्हें लगता है कि पैर के नीचे से जमीन खिसक गई।" यही एक ऐसा क्षण है जो भविष्य का फैसला करता है। किन्तु यदि इसके पूर्व में सच्चाई का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया हुआ हो तो प्रायः व्यक्ति भविष्य को अंधकारपूर्ण बना लेते हैं। वे मरते क्षण में शरीर को छोड़ रहे हैं किन्तु वासना को नहीं। वासना अपने ही लोगों और वस्तुओं के आस-पास चील की तरह मंडराती रह जाती है, और प्राणी मर कर पुनः उनके ही इर्द-गिर्द पैदा हो जाता है । महावीर, बुद्ध आदि ने कहा है-'अपनी ही शरण जाओ। 'धम्म सरणं पवज्जामि-स्वभाव की शरण खोजो।' साधक बाहर से अत्राण को देखे और भीतर देखे जो है उसे । वह सदा है, उसी को पकड़ने से त्राण पाया जा सकता है। उसकी स्मृति एक क्षण भी विस्मृत न हो। यह सुरति-स्मृति योग है। गुरु नानक ने कहा है, जो उसे नहीं भूलता, वही वस्तुतः महान् है। वह सच्ची सम्पत्ति है जो हमारे साथ जा सकती (३) भव-भावना-आज के वैज्ञानिक भी इसे स्वीकार करते हैं कि विश्व में पदार्थ सर्वथा नष्ट नहीं होते, केवल परिवर्तन होता रहता है। धार्मिक सदा से ही यह कहते आये हैं कि जीव और अजीव, चेतन और जड़ ये दो स्वतंत्र द्रव्य हैं । यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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