________________
अध्याय १२ : २४६
२२. मेरा यह अभिमत है कि विवेकी व्यक्ति न देह को ज्यादा 'कृश करे और न उसको ज्यादा उपचित । देह का संतुलन ही सबसे अच्छा है।
इन्द्रियाणि प्रशान्तानि, विहरेयुर्यथा यथा । तथा तथा प्रवृत्तीनां, देहीनां संयमो मतः ॥२३॥
२३. उपशान्त इन्द्रियां जैसे-जैसे प्रवृत्त होती हैं, मनुष्य की 'प्रवृत्तियां वैसे-वैसे ही संयत होती जाती हैं।
दोषनिहरणायेष्टा, उपवासाद्युपक्रमाः। प्राणसन्धारणायासौ, आहारो मम सम्मतः ॥२४॥
२४. दोषों के निवारण के लिए उपवास आदि उपक्रम विहित हैं । प्राणों को धारण करने के लिए आहार भी सम्मत है।
अहिंसाधर्मसंसिद्धो, विवेको नाम दुष्करः । तेन वत्स ! मया धर्मः, घोरोऽसौ प्रतिपादितः ॥२५॥
२५. अहिंसा धर्म की संसिद्धि का विवेक बहुत दुष्कर है। वत्स ! इसी दृष्टि से अहिंसा धर्म को मैंने घोर कहा है।
नाज्ञानचेष्टितं वत्स ! न च संक्लेशसंकुलम् ।
नार्तध्यानदशां प्राप्तं, तपो ममास्ति सम्मतम् ॥२६॥ २६. वत्स ! मैंने उसी तप का अनुमोदन किया है जिसमें न अज्ञान संवलित क्रियाएं हैं, न संक्लेश हैं और न आतध्यान ही है।
इन्द्रियाणां मनसश्च, विषयेभ्यो निवर्तनम् ।
स्वस्मिन् नियोजनं तेषां, प्रतिसंलीनता भवेत् ॥२७॥ २७. इन्द्रिय और मन को विषयों से निवृत्त कर अपने स्वरूप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org