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________________ २३२ : सम्बोधि ३६. असंवृत (नियमनरहित) व्यक्ति मुग्ध होते हैं । जो मूढ़ हैं उनका मन चंचल होता है। वे उन विषयों में सन्देह करते हैं जो सन्देह के स्थान नहीं हैं और उन विषयों में सन्देह नहीं करते जो सन्देह के स्थान हैं। जिनकी इन्द्रियों और मन का द्वार बाहर की तरफ खुला है, वे असंवृत होते हैं। असंवृत व्यक्ति अमृत, अनश्वर में सदा सशंकित रहता है। उसका जो कुछ परिचय है, वह मृत-नश्वर से है। कुछ समझते हैं, लेकिन जानते हुए भी सशंक में अशंक की भांति हाथ डालते हैं। बुद्ध ने कहा-'नित्य प्रज्वलित इस संसार में कैसा हास्य और आनन्द ? अन्धकार से घिरे हुए लोगो! प्रदीप की खोज क्यों नहीं कर रहे हो?" यह बुद्ध पुरुषों का दर्शन है। उन्हें आग दिखाई दे रही है। लोग जल रहे हैं। किन्तु मनुष्य को यदि आग दिखाई दे तो वह अपने को बचा सकता है। उसे दिखाई दे रही है ठंड । यह उल्टा दर्शन है। इसलिए महावीर ठीक कहते हैं'वे लोग मूढ़ हैं जो मृत में मुग्ध हो रहे हैं। अशंकित में पैर रखते हुए शंका करते हैं और शंकित स्थानों में अशंकित होकर विहरण करते हैं। अमृत की उपलब्धि के बिना उनकी पीड़ा शांत नहीं हो सकती। अमृत को खोजो, शाश्वत को खोजो, अनश्वर को प्राप्त करो।' स्वकृतं विद्यते दुःखं, स्वकृतं विद्यते सुखम् । अबोधिनाजितं दुःखं, बोधिना हि प्रलीयते ॥३७॥ ३७. दुःख अपना किया हुआ होता है और सुख भा अपना किया हुआ होता है । अबोधि से दुःख अजित होता है और बोधि से उसका नाश होता है। 'अन्नाणी किं काहिइ, किं वा नाहीइ छेयपावगं ।' . अज्ञानी को श्रेय और अश्रेय का पता नहीं होता । वह बेचारा है, दया का पात्र है, वह क्या करेगा? कैसे पार करेगा भवसागर को? यह करुणा का परम वचन है । बुद्ध ने कहा है—'भिक्षुओ ! सब मलों में अज्ञान परम मल है। इस मल को धो डालो और पवित्र हो जाओ।' गीता में कहा है—'अज्ञानेनावृत्तं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति जन्तवः'---प्राणियों का ज्ञान अज्ञान से आच्छन्न है, इसलिए वे मूढ़ होते हैं। अज्ञान पर सब संतों ने प्रहार किया है। सारा दुःख अज्ञान से अजित है। मनुष्य को पता नहीं है कि कैसे वह दुःख का संग्रह कर रहा है । दुःख सबको अप्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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