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२३० : सम्बोधि
२. निदान शल्य-वैषयिक वासना का संकल्प । शरीर और इन्द्रिय-विषयों के आकर्षण को यदि साधक नहीं छोड़ पाता तो पग-पग पर उसके जीवन में संघर्ष खड़े हो जाते हैं। इन्द्रियों के लुभावने विषय उसे अपनी ओर खींच लेते हैं। वह जिसके लिए साधना में आया था, उसे भूल जाता है, और विषयों के चुंगल में फंस जाता है। ऐहिक विषयों की पूर्ति असंभव होती है तो भविष्य के सुखों के लिए भीतर ही भीतर अकेले में संरचना कर लेता है और अपने वर्तमान या सुखद साधना-पथ से च्युत होकर नरक में स्वयं को डाल देता है। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने पूर्वभव में इसी प्रकार की संरचना से जीवन को दुःखद बना लिया। बंधु चित्तमुनि ने जब उसे आर्य-पथ पर चलने की प्रेरणा दी, तब चक्रवर्ती ने कहा-'मैं जानता हूं धर्म को, किंतु कर नहीं सकता। और अधर्म को भी जानता हूं किंतु छोड़ नहीं सकता। यह मेरे अशुभ तीव्रतम संकल्प का परिणाम है।"
३. मिथ्यादर्शन शल्य-बुद्ध ने कहा-'भिक्षुओ! मिथ्यादृष्टि के समान दोषपूर्ण दूसरा धर्म नहीं देखता । अनिष्टकारी सभी धर्मों में मिथ्यादृष्टि सबसे बुरा धर्म है।' बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग में सम्यग्दृष्टि प्रथम है और महावीर के धर्मदर्शन में भी सम्यग्दर्शन प्रथम है। यह अध्यात्म की रीढ़ है। दृष्टि की मलिनता हटने पर ही यथार्थ का अवबोध होता है। सत्यासत्य का अवबोध सम्यग्दर्शन है। आगे के पथ की सुगमता इसी विवेक पर निर्भर है।
पण्डितो वीर्यमासाद्य, निर्घाताय प्रवर्तकम्।
धुनीयात् सञ्चितं कर्म, नवं कर्म न वा सृजेत् ॥३३॥ ३३. पंडित व्यक्ति कर्म-क्षय के लिए सत्प्रवृत्तिरूप शक्ति को प्राप्त कर पूर्वकृत कर्म का नाश करे और नये कर्म का अर्जन न करे।
एकत्वभावनादेव, निःसङ्गत्वं प्रजायते। निःसङ्गो जनमध्येऽपि, स्थितो लेपं न गच्छति ॥३४॥ ३४. एकत्व-भावना से निःसंगता-निलिप्तता उत्पन्न होती है । निःसंग मनुष्य जनता के बीच रहता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता।
एक उत्पद्यते तनुमानेक एव विपद्यते । एक एव हि कर्म चिनुते, सैककः फलमपूनुते॥
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