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२१८ : सम्बोधि
वैर वैर से शान्त नहीं होता। वर की शांति अवैर से होती है। आत्म-द्रष्टा सब प्राणियों में आत्मत्व ही देखता है। वह न किसी को शत्रु मानता है, न किसी को मित्र। शत्रु और मित्र की कल्पना सारी व्यावहारिक है। मैत्री और शत्रुता परिचित के साथ होती है। आत्मा यदि अपरिचित है तो कौन शत्रु है और कौन मित्र । अगर आत्मा परिचित है तो सब आत्माएं हैं, कोई शत्रु और मित्र नहीं है। शत्रु और मित्र की बुद्धि राग-द्वेष को उत्पन्न करती है। राग से व्यक्ति प्रेम करता है और द्वेष से घृणा । दोनों ही बन्धन हैं।
सत्यद्रष्टा अभय और निर्वैर होता है। वह न किसी को डराता है और नः किसी से डरता है।
आदानं नरकं दृष्ट्वा , मोहं तत्र न गच्छति ।
आत्मारामः स्वयं स्वस्मिल्लीनः शान्तिं समश्नुते ॥१५॥ १५. परिग्रह को नरक मानकर जो उससे मोह नहीं करता और स्वयं अपने में लीन रहता है वह आत्मा में रमण करने वाला व्यक्ति शांति को प्राप्त होता है।
परिग्रह आदान इसलिए है कि वह कर्म का ग्रहण करता है। कर्म के संग्रह से आत्मा का पतन होता है। सत्य-द्रष्टा परिग्रह में आसक्त नहीं होता, क्योंकि वह इसे बंधन मानता है। आत्मा की शांति परिग्रह में नहीं है, वह है आत्मलीनता में। साधक इसीलिए आत्मलीनता में व्यग्र रहता है।
परिग्रह के मोह में फंसे व्यक्तियों को शांति नहीं मिलती। ये परिग्रह की आशा में ही व्यस्त रहते हैं। शंकराचार्य ने ऐसे व्यक्तियों के लिए लिखा है'जिनका शरीर जीर्ण हो गया है, सिर के बाल सफेद हो गए हैं, मुंह दांतों से विहीनः हो गया है। फिर भी वे आशा से मुक्त नहीं होते।'
इहैके नाम मन्यन्ते, अप्रत्याख्याय पापकम् । विदित्वा तत्त्वमात्मासौ, सर्वदुःखाद्विमुच्यते ॥१६॥ १६. कई लोग यह मानते हैं कि पाप का परित्याग करना आवश्यक नहीं होता। जो आत्म-तत्त्व को जान लेता है, वह सब दुःखों से विमुक्त हो जाता है।
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