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________________ २१६ : सम्बोधि है ? आपने प्रव्रज्या क्यों ली ?' उन्होंने कहा 'अज्ञातं ज्ञातुमिच्छामि, गूढं कर्तुमनावृतम् । अभूतो हि बुभूषामि, सेयं दीक्षा मर्माहती।।' -प्रवज्या ग्रहण करने के मुख्य प्रयोजन तीन हैं१. अज्ञात को ज्ञात करना। २. आवृत को अनावृत करना। ३. जो नहीं हो सके वैसा होना-जो रूपान्तरण आज तक घटित नहीं हो सका वैसा रूपान्तरण घटित करना। . ध्येय का स्पष्ट चुनाव प्रथम क्षण में बहुत कम व्यक्ति ही कर पाते हैं। उनमें से बहुत कम व्यक्ति ही उसी दिशा में गतिमान रह सकते हैं। जिनका मोहावरण कुछ क्षीण हो, विशद बोध हो, वे ही व्यक्ति दुःख-मुक्ति के लिए उत्कंधर होते हैं। दुःख से कैसे मुक्ति हो? इस जिज्ञासा का समाधान ऋषियों ने विभिन्न स्वरों में दिया है। किन्तु प्रतिपाद्य भिन्न नहीं है। दुःख-मुक्ति की पद्धति ही साधना-पद्धति बन गयी, योग बन गया। कर्म-योग, ज्ञान-योग, भक्ति-योग, उपासना-योग, आदि भिन्न-भिन्न नामों से उसे सम्बोधित किया गया है, किंतु इतना ही नहीं, जिसजिस व्यक्ति द्वारा वह प्रणीत हुई उसके नाम या संप्रदाय के नाम से भी वह जुड़ गयी। जैसे-जैन साधना पद्धति, बौद्ध साधना-पद्धति, हिंदू साधना-पद्धति आदिआदि। समस्त सरिताएं अन्त में जैसे सागर में विलीन हो जाती हैं वैसे ही स्वयं तक पहुंचकर साधना-विधियां भी विलीन हो जाती हैं, क्योंकि सभी पद्धतियों का ध्येय है- सत्य का साक्षात्कार । साधना का अवलंबन लिए बिना सत्य का अनुभव कठिन है। बुद्ध से पूछा-'कैसे मिली आपको सिद्धि ?' बुद्ध ने कहा-'मत पूछो, कैसे मिली? जब तक किया तब तक नहीं मिली और जब करना छोड़ा, मिल गयी।' बुद्ध ने किया भी और नहीं भी किया। उस नहीं करने के लिए ही वह करना हुआ। महावीर के जीवन में भी यही घटित हुआ। वर्षों किया और जब साक्षात्कार हुआ तब पूर्ण मौन-अक्रिय-संवर, ध्यानमुद्रा में लीन हो गए। संतजन जिस मार्ग से चले और सत्य को उपलब्ध हुए, वही साधना पथ बन गया। सत्यधीरात्मलीनोऽसौ सत्यान्वेषणतत्परः । स्थूलसत्यं समुत्सार्य, सूक्ष्म तदवगाहते ॥१२॥ १२. जो व्यक्ति सत्यधी (सत्य बुद्धिवाला) होता है, जो आत्मलीन होता है और जो सत्य के अन्वेषण में तत्पर होता है, वह स्थूल सत्य को छोड़कर सूक्ष्म सत्य का अवगाहन करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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