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अध्याय ६ : १८१
२२. प्रमादी जीव शुभ-अशुभ फल वाले कर्मों के इन बन्धनों से संसार में पर्यटन करता है।
शुभाशुभफलान्यत्र, कर्मणां बन्धनानि च । छित्त्वा मोक्षमवाप्नोति, अप्रमत्तो हि संयतिः ॥२३॥
२३. अप्रमत्त मुनि कर्मों के बन्धनों और उसके शुभ-अशुभ फलों का छेदन कर मोक्ष को प्राप्त होता है।
धर्म अप्रमत्त-अवस्था है और अधर्म प्रमत्त-अवस्था। प्रमाद का स्वरूप इस प्रकार है :
चार कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ । चार विकथा--स्त्रीकथा, देशकथा, राजकथा, भोजनकथा । पांच इन्द्रियां-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ।
इनके विषयों में आसक्ति, मन, वाणी और शरीर की इनमें प्रवृत्ति तथा निद्रा प्रमाद है और जो निवृत्ति है वह अप्रमाद है।
अप्रमत्त आत्मा कर्म-बंधनों से मुक्त होकर शुद्ध स्वरूप में ठहरती है। प्रमादी आत्मा संसार में भ्रमण करती है। संसार दुःख है और मुक्ति सुख । धर्म की अपेक्षा इसलिए है कि उससे अनंत आनंद उपलब्ध होता है।
एकमासिकपर्यायो, मुनिरात्मगुणे रतः। व्यन्तराणां च देवानां, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत् ॥२४॥
२४, भगवान ने बताया कि आत्मा में लीन रहने वाला मुनि एक मास का दीक्षित होने पर भी व्यन्तर देवों के सुखों को लांघ जाता है-उनसे अधिक सुखी बन जाता है।
द्विमासमुनिपर्याय, भवनवासिदेवानां,
आत्मध्यानरतो यतिः। तेजोलेश्यां व्यतिवजेत् ॥२५॥
२५. दो मास का दीक्षित मुनि भवनवासी देवों के सुखों को लांघ जाता है।
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