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१७६ : सम्बोधि
यथार्थनिर्णयः सम्यग-ज्ञानं प्रमाणमिष्यते ।
दृष्टिः प्रामाणिको चैषा, दृष्टिरागमिको परा ॥११॥ ११. वस्तु का यथार्थ निर्णय करने वाला सम्यग् ज्ञान 'प्रमाण' कहलाता है। यह प्रामाणिक दृष्टि है और आगमिक दृष्टि इससे भिन्न है।
सम्यग्दृष्टे वेज्ज्ञानं, सम्यग्ज्ञानं तदीक्षया । धुतमोहो निजं पश्यन्, सम्यग्दृष्टिरसौ भवेत् ॥१२॥ १२. सम्यग-दृष्टि व्यक्ति का ज्ञान सत्-पात्र की अपेक्षा से सम्यग्ज्ञान कहलाता है। जिसका दर्शन मोह विलीन हो गया है और जो आत्मा को देखता है, वह सम्यग्दृष्टि कहा जाता है।
अनन्तानुबंधी मोह का अनुदय होने पर सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होती है । सम्यक् दष्टि में 'स्व' और 'पर' का विवेक जागृत हो जाता है । वह 'स्व' को जान लेता है, 'पर' में उसकी अभिरुचि नहीं होती। गृहस्थ जीवन में रहता हुआ भी वह निर्लिप्त सा जीवन जीता है।
सम्यक्दृष्टि जीवड़ा, कर कुटुम्ब प्रतिपाल ।
अंतर में न्यारा रहै, (जिम) धाय खिलावै बाल ।। सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा है । वह बाहरी क्रिया की प्रतिक्रिया अपने ऊपर नहीं होने देता । कार्य करता हुआ भी मन से पृथक् रहता है। समाधिशतक में पूज्य पाद लिखते हैं—बुद्धि में आत्मा के अतिरिक्त किसी भी कार्य को चिरकाल तक टिकाए न रखें । आवश्यकतावश यदि कोई कार्य करना हो तो शरीर और वाणी से करें, किंतु मन का संयोजन न करें। अपने कार्य के लिए कुछ कहना हो तो वह कहकर उसको भूल जाएं। सुखी और सरल जीवन जीने की इससे बढ़ कर और कोई कला नहीं है। मनुष्य इस संभव को असंभव मान परिस्थितियों के हाथों में अपना अस्तित्व सौंप देता है । मनुष्य स्वयं अपना निर्माता है। सम्यग् दर्शन और कुछ नहीं, स्व का निर्माण है, दर्शन है।
पदार्थज्ञानमात्रेण, न ज्ञानं सम्यगुच्यते । आत्मलीनस्वभावं यत्, तज्ज्ञानं सम्यगुच्यते ॥१३॥
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