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________________ अध्याय ६ : १७३ ज्ञान आवरण की तारतमता पर आधारित है। वह ज्ञान है लेकिन पूर्ण विशुद्ध नहीं । अविशुद्धि के आधार पर उसके पाँच विभाग होते हैं । पांचवां विभाग पूर्ण शुद्ध है। १. मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान । २. श्रुतज्ञान-शब्द, संकेत और स्मरण से होने वाला ज्ञान । ३. अवधिज्ञान-मूर्त द्रव्यों को साक्षात् करने वाला ज्ञान। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से इसकी अनेक अवधियां-मर्यादाएं हैं,. इसलिए इसे अवधिज्ञान कहा जाता है। ४. मनःपर्यवज्ञान-मन की पर्यायों को साक्षात् जाननेवाला ज्ञान । इससे दूसरे के मन को पढ़ा जा सकता है। ५. केवलज्ञान-ज्ञानावरणीय कर्म के पूर्ण क्षय होने पर पूर्ण ज्ञान प्रकट हो जाता है। उस स्थिति में आत्मा के लिए कोई अज्ञेय नहीं रहता । आवत दशा में ज्ञान अपूर्ण रहता है । सूर्य के साथ इसकी तुलना घटित होती है। जैसे बादलों से ढके हुए सूर्य का प्रकाश स्पष्ट नहीं होता और बिना बादलों के स्पष्ट होता है , वैसे आवृत दशा में आत्मा का ज्ञान स्पष्ट नहीं होता। ज्यों-ज्यों आवरण हटता है, त्यों-त्यों प्रकाश स्पष्ट होता जाता है। 'केवल' शब्द के पांच अर्थ हैं-असहाय, शुद्ध, सम्पूर्ण, असाधारण और अनन्त । केवलज्ञान का विषय सब द्रव्य और पर्याय हैं। कुछ आचार्य इसका अर्थ करते हुए लिखते हैं कि केवलज्ञानी वह है जो आत्मा को सर्वरूपेण जानता है। उपर्युक्त पांच ज्ञानों में प्रथम दो परोक्ष और अंतिम तीन प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। जो ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष होता है, वह परोक्ष और जो आत्म-सापेक्ष होता है, वह प्रत्यक्ष कहलाता है। वस्तुवृत्त्या ज्ञान एक ही है-केवलज्ञान। आवरणों की अपेक्षा से उसके पांच भेद होते हैं । जब आवरण पूर्ण रूप से टूट जाता है तब सम्पूर्ण ज्ञान-केवल-.. ज्ञान प्रकट हो जाता है। आत्मा ज्ञानमयोऽनन्तं, ज्ञानं नाम तदुच्यते । अनन्तान् गुणपर्यायान्, तत्प्रकाशितुमर्हति ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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