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१६६ : सम्बोधि
२०. पदार्थों में जो अनासक्ति होती है उसे मैंने 'विरति' कहा है । आत्म विकास के प्रति जो जागरूक मनोभाव होता है उसे मैं 'अप्रमाद' कहता हूं।
अशुभस्यापि योगस्य, त्यागो विरतिरिष्यते ।
देशतः सर्वतश्चापि, यथाबलमुरीकृता ॥२१॥ २१. अशुभ योग का त्याग करना भी विरति कहलाता है । वह विरति यथाशक्ति (अंशतः या पूर्णतः) स्वीकार की जाती है ।
वैराग्य से व्यक्ति अनासक्त होता है। अनासक्त व्यक्ति का पदार्थों से आकर्षण सहज ही छूट जाता है । वह केवल तत्कालिक आसक्ति ही नहीं छोड़ता किन्तु उसके अंकुर को जला डालता है। त्याग उसका उपाय है। त्यागी व्यक्ति का मन निःस्पृह बन जाता है । वह भविष्य में भी आसक्ति का संकल्प नहीं करता । त्याग के बिना अविरति का मार्ग बन्द नहीं होता। पदार्थों के उपभोग व अनुपभोग का प्रश्न मुख्य नहीं है, मुख्य बात है अविरति की। अविरति उपभोग के बिना भी जीवित रहती है। त्याग उसे जीवित नहीं रहने देता। . मुनि अविरति का सर्वथा त्याग कर देते हैं। उन्हें जो मिले उसी में संतुष्ट रह जाते हैं । लेकिन सभी व्यक्ति मुनि नहीं होते। उनके लिए यथाशक्य अविरति के परिहार का विधान है। वे क्रमशः विरति की ओर बढ़ें और अविरति को कम
करें।
अकषाय
क्रोधो मानं तथा माया, लोभश्चेति कषायकः । एषां निरोध आख्यातोऽकषायः शान्तिसाधनम् ॥२२॥ २२. क्रोध, मान, माया और लोभ-इन्हें कषाय कहा जाता है। इनके निरोध को मैंने 'अकषाय' कहा है। वह शान्ति का साधन है। अयोग
सर्वासाञ्च प्रवृत्तीनां, निरोधोऽयोग इष्यते । अयोगत्वं समापन्ना, विमुक्तिं यान्ति योगिनः ॥२३॥
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