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________________ १६४ : सम्बोधि निवृत्ति के पांच प्रकार सम्यक्त्वं विरतिस्तद्वदप्रमादोऽकषायकः । अयोगः पञ्चरूपेयं, निवृत्तिः कथिता मया ॥१८॥ १८. सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग-मैंने पांच प्रकार की निवृत्ति का निरूपण किया है। सम्यक्त्व तत्त्वे मोक्षे च धर्मे च, यथार्थः प्रत्ययः स्फुटम् । सम्यक्त्वं तच्च जायेत, निसर्गादुपदेशतः ॥१६॥ १६. तत्त्व मोक्ष और धर्म का जो थथार्थ और स्पष्ट ज्ञान होता है, वह सम्यक्त्व कहलाता है। उसकी प्राप्ति निसर्ग से (दर्शन मोहनीय कर्म का विलय होने से) भी होती है। निसर्ग से प्राप्त होनेवाले सम्यक्त्व को नैसर्गिक और उपदेश से प्राप्त होनेवाले सम्यक्त्व को आधिगमिक कहा जाता है। सम्यग् दर्शन का सिद्धान्त समुदायपरक नहीं, आत्मपरक है। आत्मा अमुक मर्यादा तक मोह के परमाणुओं से वियुक्त हो जाती है, तीव्र कषाय-रहित हो जाती है, तब उसमें आत्मदर्शन की प्रवृत्ति का भाव जागृत होता है। यथार्थ में आत्मदर्शन ही सम्यग् दर्शन है । सम्यग् दर्शन का व्यावहारिक रूप तत्त्व श्रद्धान है। साधक में कषाय की मंदता होते ही सत्य के प्रति रुचि तीव्र हो जाती है। उसकी गति अतथ्य से तथ्य की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अबोधि से बोधि की ओर, अमार्ग से मार्ग की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, अक्रिया से क्रिया की ओर मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर हो जाती है। उसका संकल्प ऊर्ध्वमुखी और आत्मलक्षी हो जाता है। उसका संकल्प-सूत्र होता है : मैं अरिहन्त की शरण लेता हूँ। मैं सिद्ध की शरण लेता हूं। मैं साधु की शरण लेता हूं। मैं केवलिभाषित धर्म की शरण लेता हूं। सम्यग् दर्शन के आचार (पोषण देने वाली प्रवृत्तियां) आठ हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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