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________________ अध्याय ८ : १६१ ११. जो वृत्ति आत्मा को उत्तप्त करती है उसे 'कषाय' कहा जाता है । जीवों के मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति को 'योग' कहा जाता है। कषाय का अर्थ है—आत्मा की उत्तप्ति । वे चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । इनके अवन्तर भेद सोलह होते हैं। १. अनन्तानुबंधी (तीव्रतम)-क्रोध, मान, माया और लोभ । २. अप्रत्याख्यानी (तीव्रतर)-क्रोध, मान, माया और लोभ । ३. प्रत्याख्यानी (तीव्र)-क्रोध, मान, माया और लोभ। ४. संज्वलन (सत्तामात्र)-क्रोध, मान, माया और लोभ । इनका विलय नौवें गुणस्थान से प्रारम्भ होता है और सम्पूर्ण विलय दसवें में होता है । अनन्तानुबंधी कषाय का प्रभुत्व दर्शन मोह के परमाणुओं से जुड़ा होता है। इनके उदयकाल में सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती। अप्रत्याख्यान कषाय के उदयकाल में व्रत का प्रवेश नहीं होता। इसके अधिकारी सम्यक्दृष्टि हो सकते हैं, पर व्रती नहीं होते। प्रत्याख्यान कषाय के उदयकाल में चारित्र-विकारक पुद्गलों का पूर्ण निरोध नहीं होता। इसका अधिकारी महाव्रती नहीं बन सकता। संज्वलन कषाय का उदय वीतराग-चारित्र का बाधक है। योगः शुभोऽशुभो वापि, चतस्रो शुभा ध्रुवम् । निवृत्तिवलिता वृत्तिः, शुभो योगस्तपोमयः ॥१२॥ १२. योग शुभ और अशुभ दो प्रकार का होता है और चार सूक्ष्म प्रवृत्तियां अशुभ ही होती हैं। निवृत्ति-युक्त वर्तन शुभ योग कहलाता है और वह तप-रूप होता है। आत्मा शरीर से मुक्त नहीं है इसलिए वह प्रवृत्ति करती है। स्वतंत्र आत्मा में शरीरजन्य प्रवृत्ति नहीं होती। जहां प्रवृत्ति है वहां बंध है । प्रवृत्ति के शुभ और अशुभ दो रूप हैं। दोनों ही प्रवृत्तियों से आत्मा पुद्गलों को ग्रहण करती है और अपने साथ एकीभूत करती है। वे पुद्गल ही कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं । मोक्ष है पुद्गलों का सर्वथा क्षय । वह निवृत्त अवस्था है। आत्मा के सूक्ष्म स्पन्दन का अनुमान करना कठिन है। बाहरी चेष्टाओं से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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