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________________ अध्याय ७ : १४१ यह कहा कि आक्रान्ता मत बनो । आक्रमण के प्रति प्रत्याक्रमण करना अहिंसा नहीं, किन्तु विरोधजा हिंसा है राग द्वेषः प्रमादश्च यस्याः मुख्यं प्रयोजकम् । हेतुगणो न वा वृत्तेहिंसा संकल्पजास्ति सा ॥१७॥ १७. जिस हिंसा के प्रयोजक (प्रेरक) राग-द्वेष और प्रमाद होते हैं और जिसमें आजीविका का प्रश्न गौण होता है या नहीं होता, वह 'संकल्पजा-हिंसा' है। सर्वथा सर्वदा सर्वा, हिंसा वर्ज्या हि संयतैः । प्राणघातो न वा कार्यः, प्रमादाचरणं तथा ।। १८ ।। १८. संयमी पुरुषों को सब काल में, सब प्रकार से, सब हिंसा का वर्जन करना चाहिए; न प्राणघात करना चाहिए और न प्रमाद का आचरण । व्यर्थं कुर्वीत नारम्भं, श्राद्धो नाक्रामको भवेत् । हिंसां संकल्पजां नूनं वर्जयेद् धर्ममर्मवित् ॥ १६॥ 1 १९. धर्म के मर्म को जाननेवाला श्रावक निरर्थक हिंसा न करे, आक्रमणकारी न बने और संकल्पजा-हिंसा का अवश्य वर्जन करे । तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं— १. गृहस्थ, २. गृहस्थ-साधक ( उपासक श्रावक ), ३. मुनि। यह भेद बाह्य आकृति या कार्य पर आधारित नहीं है । यह अंतर्वृत्ति पर आधारित है। मुनि उसे कहते हैं— जो अपने को जगाने, जानने में पूर्णतया समर्पित हो चुका है। आत्महित ही जिसका एक मात्र ध्येय है, जो अहर्निश उसी में निरत रहता है, वह मुनि होता है । गृहस्थ साधक वह होता है— जो गृहस्थ के उत्तरदायित्यों का निर्वाह करते भी धर्म की दिशा में सतत गतिशील रहता है, धर्म को अपने सामने रखता है । संत सहज ने कहा है 'जागृत में सुमिरन करो, सोवत में लौ लाय । सहजो एक रस ही रहे, तार टूट ना जाय ॥' For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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