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________________ अध्याय ७ : १३६ कहलाता है और अपूर्ण-संयम की आराधना करने वाला अपूर्ण-- संयमी या श्रावक कहलाता है। राग-द्वेष-विनिर्मुक्त्यै, विहिता देशना जिनः । अहिंसा स्यात्तयोर्मोक्षो, हिंसा तत्र प्रवर्तनम् ॥१३॥ १३. वीतराग ने राग और द्वेष से विमुक्त होने के लिए उपदेश दिया। राग और द्वेष से मुक्त होना अहिंसा है और उनमें प्रवृत्ति करना हिंसा है। जहां राग-द्वेष विद्यमान हैं, वहां अहिंसा नहीं हो सकती। जो क्रियाएं रागद्वेष से प्रेरित हैं, वे अहिंसक नहीं हो सकतीं। जो क्रियाएं इनसे मुक्त हैं, वे अहिंसा की परिधि में आ सकती हैं। सामान्य गृहस्थ के लिए राग-द्वेष से सम्पूर्ण मुक्त हो पाना संभव नहीं है, फिर भी वह अपने सामर्थ्य के अनुसार इनसे दूर रहता है, वह उसका अहिंसक भाव है। वीतराग व्यक्ति, जो राग-द्वेष से मुक्त है, की प्रत्येक प्रवृत्ति अहिंसा की पोषक होती है और अवीतराग व्यक्ति की प्रवृत्ति में राग-द्वेष का मिश्रण रहता है। इसे स्थूल बुद्धि से समझ पाना कठिन है, किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर कहीं एक कोने में छिपे हुए राग-द्वेष देखे जा सकते हैं। भगवान् का सारा प्रवचन राग-द्वेष की मुक्ति के लिए होता है। राग-द्वेष की मुक्ति हो जाने पर सारे दोष धुल जाते हैं। सब दोषों के ये दो उत्पादक दोष हैं। सारे दोष इन्हीं की सन्तान हैं। आरम्भाच्च विरोधाच्च, संकल्पाज्जायते खलु । तेन हिंसा त्रिधा प्रोक्ता, तत्त्वदर्शनकोविदः ॥१४॥ १४. हिंसा करने के तीन हेतु हैं---आरम्भ, विरोध और संकल्प। अतः तत्त्व-ज्ञानी पंडितों ने हिंसा के तीन भेद बतलाए हैं : आरम्भजा-. हिंसा, विरोधजा-हिंसा और संकल्पजा-हिंसा। भगवान् महावीर ने आत्मा का विकास अहिंसा के मूल में देखा। उनका समस्त कार्य-कलाप अहिंसा की परिक्रमा किए चलता था। इसलिए उनका उपदेश अहिंसापरक था । अहिंसा की आवाज़ एक छोर से दूसरे छोर तक व्याप्त हो गई। वह सबके लिए थी। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा- 'जो धर्म में उठे हैं और जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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