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१२४ : सम्बोधि
एकेभ्यः सन्ति साधुभ्यः, गृहस्थाः संयमोत्तराः ।
गृहस्थेभ्यश्च सर्वेभ्यः, साधवः संयमोत्तराः ॥११॥ ११. कई एक भिक्षुओं से गृहस्थों का संयम प्रधान होता है परन्तु सभी गृहस्थों से साधुओं का संयम प्रधान होता है।
संयम के अभाव में साधना नहीं निखरती । व्यक्ति का विकास संयम में होता है । संयम का अर्थ है -स्व में प्रवृत्त होना, बहिर्व्यापार से मुक्त होना। वहां इन्द्रिय, शरीर और मन का संपर्क छूट जाता है। साधना वहीं साकार होती है। साधना के वेश में यदि संयम का उद्दीपन नही है तो उस प्रकार के मुनि से एक संयमयुक्त गृहस्थ भी श्रेष्ठ होता है। किन्तु जिस साधना में संयम की प्रमुखता है वहां गृहस्थ का स्थान साधनारत साधकों से ऊंचा नहीं होता।
भिक्षादा वा गृहस्था वा, ये सन्ति परिनिर्वृताः।
तपः संयममभ्यस्य, दिवं गच्छन्ति सुव्रताः॥१२॥ १२. जो भिक्ष या गृहस्थ शान्त और सुव्रत होते हैं, वे तप और संयम का अभ्यास करके स्वर्ग में जाते हैं।
गृही सामायिकाङ्गानि, श्रद्धी कायेन संस्पृशेत् ।
पौषधं पक्षयोर्मध्येऽप्येकरात्रं न हापयेत् ॥१३॥ १३. श्रद्धावान् गृहस्थ काया से सामायिक के अंगों का आचरण करे, दोनों पक्षों में किए जाने वाले पौषध को एक दिन-रात भी न छोड़े-कभी न छोड़े।
एवं शिक्षासमापन्नो, गृहवासेऽपि सुव्रतः।
अमेध्यं देहमुज्झित्वा, देवलोकं च गच्छति ॥१४॥ १४. इस प्रकार शिक्षा से सम्पन्न सुव्रती (जीव) गृहवास में भी औदारिक शरीर से मुक्त होकर देवलोक में जाता है।
दीर्घायुष ऋद्धिमन्तः, समृद्धाः कामरूपिणः । अधुनोत्पन्नसंकाशाः अचिमालिसमप्रभाः ॥१५॥
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