SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ : सम्बोधि अतः वह श्रमण नहीं कहलाता । उपासक की ये चार कक्षाएं हैं। इनमें धर्म का पूर्ण विकास होता है। जब वह उपासक गृहत्याग कर मुनि बनना चाहता है तब उसे पांचवी कक्षा-मुनि की कक्षा में प्रवेश करना होता है। अणुव्रतानि गृह णन्ति, प्रतिमाः श्रावकोचिताः। गुणवतानि वा शिक्षावतानि विविधानि च ॥१०॥ १०. वे पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षाव्रत तथा श्रावकों के लिए उचित ग्यारह प्रतिमाओं को स्वीकार करते हैं । अहिंसा अणुव्रत गृहस्थ के लिए आरम्भज कृषि, वाणिज्य आदि में होने वाली हिंसा से बचना कठिन होता है । गृहस्थ पर कुटुम्ब, समाज और राज्य का दायित्व होता है, इसः लिए सापराध या विरोधी हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है। गृहस्थ को घर आदि चलाने के लिए वध, बन्ध आदि का सहारा लेना पड़ता है, इसलिए सापेक्ष हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है। वह सामाजिक जीवन के मोह का भार वहन करते हुए केवल संकल्पपूर्वक निरपराध जीवों की निरपेक्ष हिंसा से बचता है, यही उसका अहिंसा अणुव्रत है। सत्य अणुव्रत गृहस्थ संपूर्ण असत्य का त्याग करने में असमर्थ होता है परन्तु वह ऐसे असत्य का त्याग कर सकता है जिससे किसी निर्दोष प्राणी को बहुत बड़ा संकट का सामना. न करना पड़े। यह सत्य अणुव्रत है । अस्तेय अणुव्रत गृहस्थ छोटी-बड़ी सभी प्रकार की चोरी छोड़ने में अपने आपको असमर्थ पाता है। किन्तु वह सामान्यतः ऐसी चोरी छोड़ सकता है, जिसके लिए उसे राज्य दंड मिले और लोक निन्दा करे। डाका डालना, ताला तोड़कर, लूट-खसोटकर. दूसरों के धन का अपहरण करना—ये सब सद्गृहस्थ के लिए वर्जनीय हैं। ब्रह्मचर्य अणुव्रत गृहस्थ पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं बन सकता किन्तु वह अब्रह्मचर्य के सेवन की सीमा कर सकता है । परस्त्रीगमन, वैश्यागमन आदि अवांछनीय प्रवृत्तियां हैं । सद्गृहस्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy