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११४ : सम्बोधि
चेतना के आनंद में विचरण करने वालों का क्षेत्र दूसरा होता है । वे बाधाओं से आकीर्ण और अध्र व सुख में संतुष्ट नहीं होते। उनका सुख अनाबाध और ध्रुव है। क्षणिक सुख में तृप्त होना और उसी के पीछे पागल होना यह उन्हीं के लिए है, जो शरीर के आगे कुछ नही देखते। चेतन जगत् में चलने वाले सच्चे सुख को पा लेते हैं। वे फिर कभी असुख के दर्शन नहीं करते और न कभी उत्पत्ति के चक्कर में फंसते हैं। अध्र व और विनश्वर सुख की ओर बढ़ने वाले उसे पा भी सकते हैं और नहीं भी। सुख पाने पर भी वह उनसे वियुक्त हो जाता है। आखिर उन्हें दुःख देखना होता है और दुःख के आवर्त में फंसना होता है ।
अध्र वेषु विरक्तात्मा, ध्रुवाण्याप्तुं प्रचेष्टते। सोऽध्र वाणि परित्यज्य, ध्र वं प्राप्नोति सत्वरम् ॥३६॥
३६. जो व्यक्ति अध्रुव-अशाश्वत तत्त्व से विरक्त होकर ध्रुवतत्त्व को प्राप्त करने में प्रयत्नशील बनता है वह अध्रुव-तत्त्व को छोड़कर शीघ्र ही ध्रुव-तत्त्व को प्राप्त कर लेता है।
जो कृत होता है, वह शाश्वत नहीं होता । जो शाश्वत होता है, वह कृत नहीं होता।
आत्मा ध्रुव है, शाश्वत है । जो पौद्गलिक संयोग-वियोग हैं, वे सब अध्र व हैं, अशाश्वत हैं। जो व्तक्ति पौद्गलिक संबंधों में आसक्त होता है, वह संसारचक्र को बढ़ाता है और जो आत्म-तत्त्व की खोज में चल पड़ता है, अपने-आपको उसमें लगा देता है, उसे पाने के लिए पागल हो जाता है वह संसार-चक्र को सीमित करते-करते ध्र व-तत्त्व (मोक्ष) को पा लेता है, आत्मा को पा लेता है।
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