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________________ १०८ : सम्बोधि २८. विषयों का त्याग वैराग्य से ही होता है। जो विषयों का त्याग कर देता है उसके उनका (विषयों का) अग्रहण होता है और अग्रहण से इन्द्रियां शान्त बनती हैं। मनःस्थैर्य ततस्तस्माद्, विकाराणां परिक्षयः । क्षीणेषु च विकारेषु, त्यक्ता भवति वासना ॥२६॥ २६. इन्द्रियों को शान्ति से मन स्थिर बनता है और मन की 'स्थिरता से विकार क्षीण होते हैं। विकारों के क्षीण होने पर वासना नष्ट हो जाती है । विरक्त व्यक्ति का आकर्षण-केन्द्र आत्मा है । उसके मनन, भाषण, चिन्तन आदि कर्म-आत्म-हित के लिए होते हैं। आत्म-भूमिका ज्यों-ज्यों दृढ़ होती है त्योंत्यों विषयों की ओर से पराङ मुखता होती जाती है। व्यक्ति रक्त-दृष्टि वहीं होता है,जहां विषयों से उसका सम्पर्क होता है । इन्द्रियों को भी फलने-फूलने का अवसर वहीं उपलब्ध होता है। जहां विषय-विमुखता है, वहां इन्द्रियां भी शांत हो जाती हैं । मन चपल नहीं है, चपल है श्वास और शरीर । इनकी चपलता के कारण ही मन पर चपलता का आरोप किया जाता है। जो व्यक्ति श्वास और शरीर पर 'नियंत्रण पा लेता है, वह सदा शान्त रह सकता है। यह स्थित प्रज्ञता की ओर 'प्रयाण है। "मन चेतना का एक अंश है । वह भला कैसे चंचल हो सकता है। वह वृत्तियों के चाप से चंचल होता है । वृत्तियां का जितना चाप होता है उतना ही वह चंचल होता है और वत्तियां जितनी शांत या क्षीण होती हैं उतना ही वह स्थिर होता है, ध्यानस्थ होता है। तालाब का जल स्थिर पड़ा है। उसमें एक ढेला फेंका और वह चंचल हो गया। यह चंचलता स्वाभाविक नहीं, किन्तु बाह्य के सम्पर्क से उत्पन्न है। ठीक इसी प्रकार मन की चंचलता भी स्वाभाविक नहीं किन्तु वत्तियों के सम्पर्क से उत्पन्न होती है। मन की चंचलता एक परिणाम है। वह हेतु नहीं है। उसका हेतु है-वृत्तियों का जागरण ।" स्वाध्यायश्च तथा ध्यानं, विशुद्धः स्थैर्यकारणम्। आभ्यां सम्प्रतिपन्नाभ्यां, परमात्मा प्रकाशते ॥३०॥ १. युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ (मुनि नथमल) द्वारा लिखित 'तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो'पृष्ठ३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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