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अध्याय ५ : १०५
कषाय, राग आदि। इनके अभाव में प्राण-वियोजन हिंसा नहीं है। प्रमाद आदि की विद्यमानता में प्राण वियुक्त न होने पर भी हिंसा है। निष्कर्ष की भाषा में यह है कि प्रमाद हिंसा हैं और अप्रमाद अहिंसा है। प्रमाद विषमता है, दुष्प्रवृत्ति है, अनुपयोगात्मक दशा है और अप्रमाद समता है, सत्-प्रवृत्ति है और उपयोगात्मक दशा है।
साधना का मुख्य लक्ष्य कर्म-प्रकृति को बदलना नहीं, किन्तु कर्म के स्रोत को बदलना है । जागरूकता का संबर्द्धन कर्म- आवरण को स्वतः ही बदल देता है, आचरण स्वतः बदल जाते हैं । जैसे-जैसे साधक शरीर के प्रति जागरूक होता है वैसे-वैसे क्रमशः शरीर और मन की वृत्तियों के प्रति भी सजगता बढ़ती जाती है। आचरण से पहले ही वह सचेत हो जाता है कि-- मैं क्या कर रहा हूं ? क्या सोच रहा हूं ? क्या बोल रहा हूं आदि-आदि।
सत्य, अस्तेय आदि आचरण हैं। इन्हें अलग से साधने में बड़ी कठिनाइयां हैं। व्यक्ति के बदलने के साथ ही इनमें परिवर्तन आ जाता है। सजगता का अभ्यासी साधक असत्य ही नहीं बोलता, किंतु असत्य के आस-पास की सभी सीमाओं को पार कर देता है । वह संयत, प्रिय, सत्य, यथार्थ और हितैषी भाषण से युक्त हो जाता है । इसके साथ-साथ कहां नहीं बोलना-मौन रहना यह भी वह जान लेता है।
वस्तुओं के प्रति उसके मन में कोई आकर्षण नहीं रहता । वह वस्तुओं की उपादेयता स्वीकार करता है, किंतु उन्हें जीवन का ध्येय नहीं मानता। जहां पदार्थ जीवन का साध्य होता है वहां संग्रह, चोरी आदि का प्रश्न खड़ा होता है। साधक-धार्मिक व्यक्ति के लिए वे अकिंचित्कर हो जाते हैं। ____भोग शरीर की पूर्ति है। जागरूक साधक शनैः शनैः आत्मा की ओर आरोहण करता है । वह आत्म-भोग में डूबने लगता है। उसी में मस्त विहार करने लगता है। तब ब्रह्मचर्य का फूल स्वतः खिल उठता है। ब्रह्म जैसी चर्या या ब्रह्म में गतिशीलता हो जाती है । ब्रह्मचर्य का वास्तविक आनंद ब्रह्म-बिहार के बिना कैसे संभव हो सकता है ? केवल संयोग से मुक्त हो जाना ब्रह्मचर्य नहीं है। वह सिर्फ बाह्य है। बाह्य ब्रह्मचर्य तब सुगंधित होता है जबकि अंतर आनंद का कोई प्रसून प्रस्फुटित हुआ हो । अब्रह्मचर्य हेय है और ब्रह्मचर्य उपादेय है-इतना जान लेने मात्र से न अब्रह्मचर्य छूटता है और न ब्रह्मचर्य अवतरित होता है । जीवन 'विकास के समस्त सूत्रों की सारभूत प्रक्रिया है-जीवन का प्रत्येक चरण सजगता से शून्य न हो। सजगता जीवन में मूर्तिमती हो। साधक का यह प्रथम कदम है और यही अंतिम । महावीर ने कहा है --
-होश पूर्वक गति, स्थिति, बैठना,शयन, भोजन, भाषण आदि क्रियाएं करने
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