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________________ अध्याय ४ : ८६ इस श्लोक में संकल्प - विकल्प के त्याग और संयम की बात कही गई है। संकल्प का अर्थ है – बाह्य द्रव्यों में 'यह मेरा है' -- इस प्रकार का ममत्व करना । 'मैं सुखी हूं; मैं दुःखी हूं' - इस प्रकार के हर्ष और विषादगत परिणामों को विकल्प कहा जाता है। संकल्प और विकल्प से आत्मा का सान्निध्य प्राप्त नहीं होता। उसके लिए निर्विकल्प होने की अपेक्षा होती है । निर्विकल्प अवस्था तक पहुंचने के लिए सर्वप्रथम इन्द्रिय- संयम अपेक्षित होता है । असंयम हमारी शक्तियों को कुण्ठित करता है, उनमें जड़ता उत्पन्न करता है । संयम 'स्व' की ओर ले जाने वाला तत्त्व है । वह उपास्य है । वह अध्यात्म का प्राण है। भगवान महावीर ने साधक के लिए मन, वचन और काया के संयम का उपदेश दिया। संयम साधना का आदि बिन्दु है । ज्यों-ज्यों साधना बढ़ती जाती है, संयम पुष्ट होता जाता है। बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग और क्या है ? वह संयम की ओर प्रयाण है । समस्त 'पापों का न करना ही कुलल की उपसम्पदा है, यही बुद्ध-शासन है । गीता में कहा है- 'असंयत व्यक्तियों के लिए 'योग' दुर्लभ है । संयत व्यक्ति अपने दृढ़ संकल्प और समुचित साधनों से 'योग' की प्राप्त कर सकते हैं ।' न चेयं ताकिकी वाणी, न चेदं मानसं श्रुतम् । अनुभूतिरियं साक्षात् संशयं कुरु माऽनघ ! ॥२६॥ २६. भद्र ! मैं तुझे कोरी तार्किक, काल्पनिक या सुनी हुई बातें नहीं सुना रहा हूं। यह मेरी साक्षात् अनुभूति है, इसमें सन्देह मत कर । भगवान् ने यहां साक्षात् अनुभूति पर बल दिया है। तार्किक, काल्पनिक और सुनी हुई बातें सत्य होती हैं और नहीं भी । किन्तु अनुभूति सदा सत्य होती है । तार्किक और काल्पनिक बातों से व्यक्ति मानने की ओर अग्रसर होता है और अनुभूति से वह जानने लगता है । मानना और जानना दो बातें हैं । युवाचार्य श्रीमहाप्रज्ञ ने लिखा है - 'मानने के नीचे वैसे ही अन्धकार होता है, जैसे दीपक के तल में अन्धकार । जानना वैसे ही सर्वतः प्रकाशमय होता है, जैसे सूर्य । सूर्य बादलों से घिरा होता है, प्रकाश मन्द हो जाता है। ज्ञान आवरण और व्यवधान से घिरा होता है। जानना मानने में बदल जाता हैं। सूर्य को मैं जानता हूं किन्तु मानता नहीं हूं । सुमेरु को मैं मानता हूं किन्तु जानता नहीं हूं । अस्तित्व के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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