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७४ : सम्बोधि
स्थान में होता है, किन्तु उनका आंशिक विलय दूसरे गुणस्थानों में भी होता है । ज्यों-ज्यों विलय होता है, आनन्द की अनुभूति स्पष्ट, स्पष्टतर ओर स्पष्टतम होती जाती है । सम्पूर्ण आनन्द की अनुभूति को मोक्ष कहा जाता है। वह सिद्धावस्था में तो होती ही है, किन्तु उसका आंशिक अनुभव यहां भी सुलभ है । आचार्य कहते हैं :
निर्जितमदमदनानां मनोवाक्कायविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानां इहैव मोक्षः सुविहितानाम् ||
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'जिन्होंने अहंकार और काम पर विजय प्राप्त कर ली है, जिनकी मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियां पवित्र हैं, जो वाह्य पदार्थो की आकांक्षाओं से निवृत्त हो चुके हैं, उन व्यक्तियों के लिए यही मोक्ष है - अर्थात् वे इसी जीवन में अपूर्व आनन्द की अनुभूति करने लगते है ।'
मननं जल्पनं नास्ति, कर्म किञ्चिन्न विद्यते । विरज्यमानोऽकर्मात्मा, भवितुं प्रयतो भव ॥४६॥
४६. वहां (मोक्ष में ) मन, वाणी और कर्म नहीं होते - न मनन किया जाता है, न भाषण किया जाता है और न किंचित् मात्र प्रवृत्ति की जाती है। वहां आत्मा 'अकर्मा' होती है । मेघ! तू विरक्त होकर 'अकर्मात्मा' बनने का प्रयत्न कर ।
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