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७२ : सम्बोधि
४५. कर्म-बद्ध जीव के शरीर होता है । शरीर में वीर्य (सामर्थ्य) स्फुटित होताहै । वीर्य से योग (मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति) और योग से प्रमाद उत्पन्न होता है।
प्रमादेन च योगेन, जीवोऽसौ बध्यते पुनः। बद्धकर्मोदयेनैव, सुखं दुःखञ्च लभ्यते ॥४६॥
४६. प्रमाद और योग से जीव पुनः कर्म से आवद्ध होता है और बंधे हुए कर्मों के उदय से वह सुख-दुःख पाता है।
अकर्म से कर्म का ग्रहण नहीं होता। कर्म ही कर्म का संग्राहक है। तत्त्वतः आत्मा कर्म का कर्ता नहीं है। कर्मजन्य परिणामों से आत्मा की प्रवृत्ति रागद्वेष-मोहात्मक होती है। तब कर्म का प्रवेश होता है। राग, द्वेष और मोह-ये आत्मा की वैभाविक दशा हैं । स्वाभाविक दशा है -ज्ञान, दर्शन और चारित्र । इनसे आत्मा बद्ध नहीं होती। विभाव ही विभाव को आकृष्ट करता हैं और फिर विभाव रूप में परिणत होता है । व्यवहार-दृष्टि से राग-द्वेष और मोह-ये जड़ नहीं हैं, चेतना की अशद्ध परिणति है। चेतना आत्मा का धर्म है । अतः आत्मा कर्म का कर्ता है। अज्ञानासवत आत्मा सुख-दुःख या जन्म और मृत्यु का जाल अपने ही हाथों से फैलाती है और उसी में फंस जाती है।
अनुभवन् स्वकर्माणि, जायते म्रियते जनः । प्राधान्यं नेच्छितानां यत्, कृतं प्रधानमिष्यते ॥४७॥
४७. प्राणी अपने कर्मों का भोग करता हुआ जीता है और मरता है। कर्म-सिद्धान्त के अनुसार इच्छा की प्रधानता नहीं है किन्तु कृत की प्रधानता है । अर्थात् मनुष्य जो चाहता है वही नहीं होता, किन्तु उसे उसका फल भी भुगतना पड़ता है जो उसने पहले किया है।
मनुष्य क्या, छोटे से छोटे प्राणी में भी जिजीविषा है। सभी प्राणी अपनी स्थिति में सन्तुष्ट हैं। वे वहां से अन्यत्र रमण करना नहीं चाहते। इन्द्र और सूअर का वार्तालाप इसका प्रमाण है। इन्द्र ने सूअर से कहा-"देखो, तुम कितने दुःखी
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