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कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी
कवच है, टूटती चली जा रही है। कुछ देशों के इन करतबों का परिणाम सारे विश्व पर पड़ रहा है ।
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यह सारी स्थिति एक प्रलय की स्थिति है । क्या इस सन्दर्भ में हम यह न कहें - हिंसा मृत्यु है? क्या यह कहें- हिंसा मृत्यु नहीं है? जिस स्थिति में एक आदमी का नहीं, दो-तीन-चार का नहीं किन्तु पूरे जगत का विनाश छिपा है, क्या उसको मृत्यु कहना अतिश्योक्ति है ? एस खलु मारे-हिंसा मृत्यु है - इस वाक्य को वैज्ञानिक सन्दर्भ में साथ पढ़ें तो लगेगा - यह कितना व्यापक सूत्र है। बिना सन्दर्भ यह सूत्र सामान्य लगता है किन्तु विज्ञान के सन्दर्भ में यह सूत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बन जाता है । यह पर्यावरण विज्ञान का सूत्र है । पर्यावरण का सन्तुलन बिगड़ा और संसार के लिए मौत का निमंत्रण आ गया । प्रश्न है - यह सन्तुलन क्यों बिगड़ रहा है? इसका कारण है - मनुष्य में असंयम बढ़ गया है । वह इतना धन चाहता है, इतना सुख चाहता है, इतनी सुविधा चाहता है कि उसके लिए सब कुछ करने को तैयार है। वनों की कटाई क्यों हो रही है ? पैसे के लोभ के कारण वन कट रहे हैं। बड़े-बड़े ठेकेदारों और अधिकारियों की मिलीभगत से निषिद्ध वन खुले आम काटे जा रहे हैं। कोई रोकने वाला नहीं है, कोई टोकने वाला नहीं है, इधर भी पैसे का लोभ है, उधर भी पैसे का लोभ है । यह धन का लोभ, यह असंयम, वनों को नष्ट कर रहा है। इसका परिणाम है ऑक्सीजन की कमी और कार्बन की अधिकता ।
असंयम के कारण ही खनिज का अतिरिक्त दोहन हो रहा है । इस वैज्ञानिक युग में जीने वाले वैज्ञानिक और भौतिक मनुष्य क्या भविष्य की कल्पना नहीं करते? क्या खनिज का अतिरिक्त दोहन कर वे भावी पीढ़ियों को दरिद्र नहीं बना रहे हैं? जो खजिन सम्पदा हजारों वर्षों तक काम आ सके, यदि वह सौ वर्षों में समाप्त हो जाए तो क्या स्थिति होगी ? आने वाली पीढ़ी रोएगी, वह कहेगी -हमारे पूर्वजों ने हमारे साथ क्या किया, हमें बिल्कुल दरिद्र और निकम्मा बना दिया ।
पर्यावरण विज्ञान का एक सूत्र है -लिमिटेशन । पदार्थ की सीमा है । कोई भी पदार्थ असीम नहीं है । क्या पदार्थ की सीमा का यह सूत्र संयम का सूत्र नहीं है? पर्यावरण विज्ञान का दूसरा महत्त्वपूर्ण सूत्र है - पदार्थ सीमित है, इसलिए उपभोग कम करो। पदार्थों का उपभोग कम हो, पानी का व्यय कम किया जाए, उपभोग का संयम किया जाए, यह सूत्र धर्म का नहीं, पर्यावरण विज्ञान का है किन्तु सचाई दोनों में एक है। धर्म का आदमी
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