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महाश्रुतस्कन्ध के प्रारम्भ के पहले पूर्वसेवात्मक द्वादश भक्त (५ उपवास) बीच में ८ आयंबिल, पंचमंगल के अन्त में अष्टम भक्त (३ उपवास) उत्तर सेवा के करने का विधान किया है, इस प्रकार ५१८+३=१६ दिनों में उपधान पूरा होता है और १६ ही दिनों में दूसरा प्रतिक्रमणाध्ययन के उपधान होते हैं, एकंदर ६ उपधान वहनमें १६५-१६+३५+४+२८+६=१०५ एक सौ पांच दिन लगते थे।
उपधान माला-परिधान विधिस्वर, व्यञ्जन, मात्रा, बिन्दु, पदार्थ, सम्पदा, अक्षर, विशुद्ध, अव्यत्याम्रडित सूत्र पढकर उसका सम्पूर्ण सूत्रार्थ जान ले, जहां कुछ भी शंका हो उसे बार बार विचार कर निश्शंकित करले, इस प्रकार सूत्र, अर्थ और दोनों को पढकर अच्छे दिन में शुभ तिथि, करण, मुहूर्त, नक्षत्र, योग, लग्न में चन्द्रबल देखकर यथाशक्ति जिनपूजा, वस्त्रादि से गुरु भक्ति करके विशुद्ध विशुद्धतर परिणाम वाला होकर जिनदेव पर दृष्टि स्थिर कर एकाग्रचित्त से-“मैं धन्य हूँ, कृतपुण्य हूँ, जिनवन्दनादि से मेरा जन्म सफल हो गया” इत्यादि चिन्तन करता हुआ वह हाथ जोड़कर हरियाली तृणादि से रहित भूमिभाग में जानुद्वय टेककर गुरु के साथ साधु-साध्वी सार्मिक बन्धुवर्ग से परिवृत हो प्रथम जिन प्रतिमा के सामने चैत्यवन्दन करे, बाद में गुणवान् पुरुष की, साधु, सार्मिक गण की यथाशक्ति भक्ति करे, इस अवसर पर गुरु धर्मदेशना करे और माला पहिनने वाले का उपबृहण करते हुए कहें-'देवानुप्रिय ! आज तूने अपना जन्म सफल किया है, अब से तूने जीवन पर्यन्त के लिए त्रैकालिक देववन्दन करना चाहिए, इस असार शरीर का यही सार है, दिन के पूर्व भाग में तब तक पानी न पीये जबतक कि जिनवंदन तथा गुरुवन्दन न किया हो, दिन के मध्य में तबतक भोजन न करे जब तक मध्याह्न का चैत्यवन्दन न किया हो, अपरान्ह में ऐसा करे कि चैत्यवन्दन किये बिना स्वाध्याय का समय व्यतीत न हो, इस प्रकार यावज्जीव के लिए अभिग्रह करवाकर हे गौतम ! उसी
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