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________________ ३१० : निबन्ध-निचय उपर्युक्त तमाम असंगतियों के निराकरण का उपाय हमको एक ही दृष्टिगोचर होता है और वह है जिनसेन के शक संवत को "कलचुरी संवत्" मानना। आचार्य जिनसेन उसी प्रदेश से विहार कर वर्द्धमान नगर की तरफ आये थे कि जहाँ कलचुरी संवत् ही प्रचलित था। इस दशा में हरिवंशपुराणकार द्वारा कलचुरी संवत् की पसन्दगी करना बिल्कुल स्वाभाविक है। कलचुरी संवत् ईशा से २४६ और विक्रम से ३०६ के बाद प्रचलित हुआ था। (१) जिनसेन के "हरिवंशपुराण" की समाप्ति ७०५ कलचुरी संवत्सर में हुई थी। इसमें ३०६ वर्ष मिलाने पर विक्रम वर्ष १०११ आयेंगे'। इससे "धरणीवराह" और जिनसेन के समय की संगति भी हो जाती है। पुन्नाट संघीय जिनसेन की तरह ही भट्टारक वीरसेन तथा उनके शिष्य स्वामी जिनसेन का समय भी कलचुरी संवत्सर मान लेने पर इनके ग्रन्थों में होने वाले प्रभाचन्द्र, कवि धनञ्जय आदि के निर्देशों की भी संगति बैठ जायगी। जिस हैहय राजवंश की तरफ से कलचुरी संवत् प्रचलित हुआ था, उसका शृङ्खलाबद्ध इतिहास वि० सं० १२० के आसपास से मिलता है और इसके पूर्व का कहीं कहीं प्रसंगवशात् निकल आता है। इससे भी प्रमाणित होता है कि विक्रम की दशवीं शती में कलचुरी संवत् का सब से अधिक व्यवस्थित प्रचार चल पड़ा था। हैहयों के देश में ही नहीं गुजरात के चौलुक्य, गुर्जर, सेन्द्रक और त्रैकूटक के राजाओं के ताम्रपत्रों में भी यही (१) हैहयों का राज्य बहुत प्राचीन समय से चला आता था, परन्तु अब उसका पूरा पूरा पता नहीं लगता। उन्होंने अपने नाम का स्वतन्त्र संवत् चलाया था जो कलचुरी संवत् के नाम से प्रसिद्ध था। परन्तु उसके चलाने वाले राजा के नाम का कुछ पता नहीं लगता। उक्त संवत् वि० सं० ३०६ आश्विन शुक्ला ? से प्रारम्भ हुआ और १४वीं शताब्दी के अन्त तक वह चलता रहा। कलचुरियों के सिवाय गुजरात (लाट) के चौलुक्य गुर्जर सेन्द्रक और कूटक वंश के राजाओं के ताम्र-पत्रों में भी यह संवत् लिखा मिलता है। (भारत के प्राचीन राजवंश, प्रथम भाग पृ० ३८ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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