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* प्रस्तावना. *
जिस वक्त चारों ओर से संप के उपदेश का ध्वनि सुनाई दे रहा हो, सुधारक समाज के पुकार लोगों के कान बहिरे कर रहे हों, और सामाजिक पत्र अपने समाज नायकों को टटोल टटोल के सावधान कर रहे हों, उस सुधारे के समय में खंडन-मंडन की पुस्तकों का प्रसिद्ध होना लोगों की अरुचि का कारण होवे यह एक साधारण बात है।
दूसरे ही क्यों, मैं खुद भी इस बात को पसंद नहीं करता कि लोगों को विक्षोभ पहुंचाने वाले लेख या पुस्तकों का प्रचार हो।
इस हालत में पाठक महाशय यह प्रश्न अवश्य करेंगे कि जब तुम्हारी भी यही मान्यता है तो फिर इस चर्चावाली पुस्तक को प्रकाशित करने की क्या जरूरत थी।
मेरे प्रियपाठकों के इस प्रश्न को मैं मान के साथ स्वीकार कर के उत्तर दूंगा कि आप का कहना वाजवी है, पर
"प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते ।" -यह वृद्ध पुरुषों की कहावत तो आपने भी सुनी ही होगी कि विना प्रयोजन तो मंद पुरुष भी प्रवृत्ति नहीं करता।
मेरी यह प्रवृत्ति-चर्चात्मक पुस्तक को प्रकाश में लाने की उत्सुकता-किन कारणों से हुई यह बात मुझे इस जगह पर अवश्य ही कहनी पड़ेगी, और आप की शंका का समाधान करना पड़ेगा।
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