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अर्थात्-नारायण से अन्न आया, ब्रह्मलोक महासंवर्त कमें पका, फिर सूर्य्यलोक में पका, फिर क्रव्याद में पका, फिर पका, जालकिलक्लिन्न वासी और पवित्र अन्न अप्रार्थित अनुद्दिष्ट को भक्षण करे पर किसी से याचना न करे ।
(८)-ऐं ह्रीं सौं श्रीं क्लीमोन्नमो भगवत्यन्नपूर्णे ममाभिलषितमन्नं देहि स्वाहा
"अन्नपूर्णानिषद्' पृ० २२७ अर्थात-ऐंकारादि मन्त्र विशिष्टे ! भगवति ! अन्नपूर्णे ! मेरा अभिलषित अन्न दो। (8)-"अभक्ष्यस्य निवृत्या तु, विशुद्ध हृदयं भवेत् ।
आहार-शुद्धौ चित्तस्य, विशुद्धिर्भवति स्वतः ॥३६॥ चित्रशुद्वौ क्रमाज्ज्ञानं, त्रुटयन्ति ग्रन्थयः स्फुटम् । अभक्ष्यं ब्रह्म विज्ञान-विहीनस्येव देहिनः ॥३७॥ न सम्यग् ज्ञानिनस्तद्वत्, स्वरूपं सकलं खलु । अहमन्नं सदान्नाद, इति हि ब्रह्मवेदनम् ॥३८॥
"पाशुपत ब्रह्मोपनिषद्' पृ ४५६
अर्थात् --अभक्ष्य की निवृत्ति से हृदय विशुद्ध होता है, और आहार की शुद्धि स्वतः होजाती है । चित्त शुद्धि से क्रमशः ज्ञान प्राप्त होता है, और ज्ञान से हृदय की ग्रन्थियां टूट जाती हैं। ब्रह्मविज्ञान विहीन मनुष्यों के लिये भक्ष्य अभक्ष्य का विचार
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