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उनमें से एक सर्व साधारण के लिए रक्खा, दो देवों को किये, तीन अपने स्वाधीन किये, और एक पशुओं को दिया। जो भाग पशुओं को दिया उसमें प्राणवान् सभी तत्त्व विद्यमान थे । इस कारण से सर्वदा खाये जाने पर भी वे क्षीण नहीं होते, जो उस अक्षय को जानता है, वह अन्न खाता और प्रतीक रूप से वह देवताओं को भी प्रदान करता है । वह धान्य का स्वयं उप जीवन करता है ।
" दशग्राम्याणि
धान्यानि भवन्ति बीहियवास्तिलभाषा प्रियंगवो गोधूमाश्च मसूराश्च खल्वाश्च खलकुलाश्च तान् पिष्टान् दधनि घृतउपषिञ्चत्यास्ये जुहोति "
'वृहदारण्योनिषद्” पृ० ११७
अर्थात् - दस ग्राम्य धान्य होते हैं, ब्रीहि, यव, तिल, माप, अणु, प्रियङ्ग, गेहूं, मसूर, खल्व, खलकुत्र, इनको पीस कर ही दही मधु, घृत में मिलाकर अग्नि में आहुतियां देते हैं ।
(४) पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||
"श्वेताश्वतरोपनिषद्” पृ० १२३
अर्थात- जो पहले था, वर्त्तमान में हैं, वह सब पुरुष ही है, जो अमृत का स्वामी है,
बढ़ता है ।
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भविष्य में होगा और अन्न
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