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प्रतिलेहयन्ति स्तनं वानु धापयन्त्यथ वत्सं जातमाहुरतृणाद् इति । तस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च प्राणिति यच्च नेति पयसीदं सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च प्राणिति यच्च न' |
" यत्सप्तान्नानि मेधया तपसाऽजनयत्पिता एकमस्य साधारणं द्व े देवानभाजयत् त्रीण्यात्मनेऽकुरुत पशुभ्य एक प्रायच्छत् तस्मिन् सर्व प्रतिष्ठितं यच्च प्राणिति यच्च न कस्मात्तानि क्षीयन्ते ऽघमानि सर्वदा । यो वै तामक्षितिं वेद सोऽन्नमत्ति प्रतीकेन स देवानपि यच्छति स ऊर्जमुपजीवतीतिश्लोकाः
"बृहदारण्योपनिषद्' पृ० ८१
अर्थात - पालन करने वाले ने अपने मेधा बल तथा तपोबल से सात प्रकार के अन्नों का सर्जन किया, मेघा और तप से पिता ने जो अन्न उत्पन्न किया उसमें एक उसका साधारण अन्न था, साधारण अन्न वही है जो खाया जाता है, जो इस की उपासना करता है, वह पास से व्यावृत नहीं होता । जो मिश्र था वह देवताओं में बांटा हुत और प्रहुत के रूप में, इसलिए देवों को आहुतियाँ प्राहुतियां दी जाती हैं, इसीलिए कहते हैं दर्श और पौर्णमास, उससे इष्टयाजुक न हो एक भाग पशुओं को दुग्ध के रूप में प्रदान किया, जिस दूध से मनुष्य तथा पशु अपना पोषण करते हैं । इसीलिए तत्काल जात बालक को प्रथम घृत चढाते हैं और स्तनपान कराते हैं यही कारण है कि बछड़े को भी अतृगाद कहते हैं । इस अन्न में प्राणवान् प्राणवान् सब कुछ प्रतिष्ठित हैं | पालने वाले ने जिन सप्त अन्नों का सर्जन किया,
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