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( १२ ) अर्थात्-शिशुअवस्था में मनुष्य दुग्ध घृत का आहार करता है, बड़ा होने पर वह ओदनादि अन्न का आहार लेता है, और त्रस तथा स्थावर प्राणियो को भी आहार के रूप में ग्रहण करता है।
कुलकर कालीन युगलिक मनुष्यों आहार युगलिक मनुष्य बहुधा वनों उद्यानों में रहते, और विविध वृक्षों के फल आदि का आहार करके अपना जीवन निर्वाह करते हैं । उस काल में भारत भूमि में दस प्रकार के वृक्ष पर्याप्त परिमाण में होते थे। दशविध कल्प वृक्षों के विषय में अनेक जैन सूत्रों में विस्तार से लिखा है, परन्तु हम उन सब का अवतरण देंगे । जिस में कि दस प्रकार के कल्पवृक्षों के नाम सूचित किये गये हैं।
"अकम्म भूमियाण मणुारणं दसविहा रुक्खा उवभोगन्ताए उत्थिया पन्नत्ता, तं जहा
मतंगयाय भिंगा, तुडियंका दीव जोइ चित्तंगा ॥ चित्तरसा मणिअंगा, गेहागारा अनिगिणाय ॥
अर्थात्-अकर्म भूमक मनुष्यों के उपभोगार्थ दस प्रकार के वृक्ष उपस्थित रहना बताया है । जैसे
मदाङ्ग १, भ्रङ्गाङ्ग २, त्रुटिताङ्ग ३, दीपाङ्ग४, ज्योतिरा ५, चित्राङ्ग ६, चित्ररसाङ्ग, मण्यङ्ग ८, गृहाकार ६, अनाग्न्याङ्ग १०,का निर्देश करता है। अतः त्रस प्राणियों का भी आहारके रूप में निर्देशकिया गया है,कि अनार्य असभ्य जाति के मनुष्यों में सूत्र निर्माण काल से पहले ही चलते फिरते प्राणियों के मांस आदि पाहार के रूप में ग्रहण करने का प्रचार हो चुका था।
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