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पटाङ्ग बात लिख डाली हैं, जिनमें झूठ और अतिशयोक्ति का तो पार हो नहीं मिलता। __ इस सम्बन्ध में एक दो उद्धरण देकर हम इस हेडिङ्ग को पूरा करेंगे। थेरगाथा में जम्बुक थेर की निम्न उद्धत चार गाथाएं पढ़ने योग्य हैं
पंच पंचास वस्सानि, रजो जल्लमधारथिं । भुजं तो मासिक भत्तं, केस मस्सु अलोचयिं ॥२८३॥ एक पादेन अष्ठासिं, आसनं परिवज्जयिं । सुक्ख गूथानि च खादि, उद्देसंच न सादियिं ।।२७४।। एतादिसं करित्वान्, बहुदुग्गति गामिनं । वुह्यमानो महोघेन, बुद्धं सरणमागमं ॥२८॥ सरण गमनं पस्स, पस्स धम्म सुधम्मतं । तिस्सो बिज्जा अनुपत्ता, कतं बुद्धस्स सासनंति ॥२८६॥
(जम्बुको थे। पृ. ४७ ) अर्थ-जम्बुक थैर कहता है पचपन वर्ष तक मैंने अपने शरीर पर रज तथा मैल के स्तर धारण किये, महीने २ भोजन करते हुए शिर तथा मुख के वालों का लुञ्चन किया ।
एक पैर पर खड़ा रह कर तप किया, आसन को छोड उकुरु आसन से ध्यान किया सूखी विष्ठा खाई फिर भी उद्दश सिद्ध नहीं हुआ।
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