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________________ जो ऐसे दान की प्रशंसा करते हैं, वे प्राणियों का बध चाहते हैं और जो इसका निषेध करते हैं, वे इस दान पर निर्भर रहने बालों की जोविका का नाश करते हैं। इस कारण से सच्चे श्रमण ऐसे दानों के सम्बन्ध में पुण्य है, पुण्य नहीं है, यह दोनों प्रकार की भाषा नहीं बोलते । इस प्रकार प्रारम्भ तथा अन्तराय जनक वचन न बोलने वाले श्रमण आत्मा को कर्मरज से मुक्त करके निर्वाण को प्राप्त हैं। बौद्ध ग्रन्थों में लेखकों की अतिशयोक्तियां बुद्ध के निर्वाण के सातवें दिन एकत्रित हुए भितुओं में से सुभद्र नामक एक वृद्ध भिक्षु ने महाकश्यप से कहा-हे आयुष्मन् ! शोक न करो, विलाप न करो, हम मुक्त हुए हैं, यह तुम को कल्पता है यह नहीं कल्पता है इस प्रकार से उस महा श्रमण ने हमें बहुत तंग कर दिया था, अब हम जो चाहेंगे वह करेंगे जो न चाहेंगे वह न करेंगे ! उक्त वचन को स्मरण करते हुए महाकश्यप ने सोचा इस प्रकार के भिन्तु शास्ता के विना धर्म के खरे स्वरूप को बहुत जल्दी बदल देंगे। यह सोच कर भिक्षु संघ में से महाकश्यप उपालि आदि राजगृह पहुँचे और सात महिनों तक रह कर बुद्ध के उपदेशों और आगमों को सुना सुना कर व्यवस्थित किये। __राजगृह की संगीति के बाद भी धीरे धीरे भिक्षुओं ने अपने आचरणों में परिवर्तन करना जारी रखा। बुद्ध के इस कथन का यह परिणाम था कि जो उन्होंने अपने अन्तिम जीवन में भिक्षुओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003119
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1961
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size19 MB
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