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( १७८ ) बुद्ध और इनके भिक्षुओं की दान प्रशंसा
जिस प्रकार ब्राह्मणों ने यज्ञ विधियों के प्रसंग में सुवर्ण दक्षिणा का और ग्रहण संक्रान्ति में भूम्यादि दानों का महत्त्व बताया है, उसी प्रकार बौद्ध ग्रन्थकारों ने उनके संघ को आवश्यक पदार्थों का दान देने का महान् फल बताया है। इस सम्बन्ध में सामान्य बौद्ध ग्रन्थकारों की तो बात ही जाने दीजिये बुद्ध स्वयं किस प्रकार दान की प्रशंसा करते थे, वह निम्नोद्ध त पद्यों से जाना जा सकता हैअञ्जेन च केवलिनं महेसिं, खीणासवं कुक्कुच्चकपसंतं । अन्नेन पानेन उपट्टहस्सु, खेत्तं हितं पुञ्ज पेक्खस्स होति॥२७ ये अन्त दीपा विचरन्ति लोके, अकिंचना सव्य विधिप्पमुत्ता। कालेसु तेसु हत्थं पवेच्छे, यो ब्राह्मणो पुजपेक्खोयजेथ ॥१५
_ (सुत्त निपात) अर्थ-(भगवान् बुद्ध कहते हैं ) स्वयं तथा अन्य द्वारा केवली क्षीणाश्रव महर्षि की अन पान द्वारा उपचर्या करो, पुण्यार्थी दाता के लिये ऐसा ही दान क्षेत्र होता है।
पदार्थों के प्रकाशन में दीपक समान, त्यागी, सर्व विधि प्रवृत्तियों से मुक्त ऐसे ज्ञानी जो लोक में विचरते हैं उनके लिये पुण्यार्थ यज्ञ करने वाला ब्राह्मण समय पर दान के लिये हाथ लम्बायें।
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