________________
(. ४७७ ) बुद्ध अपना मन्तव्य प्रकट करते हुए कहते हैं न मच्छ मंसान ननासकत्वं, ननग्गियं जल्लं खराजिनानि वा नाग्गिहुत्तस्सुपु सेवना वा, ये वापि लोके अमरा बहुतपा । मन्ताहुतियञ्ज मंतय सेवना, सोधेति मच्च अवितिएणकखं।।११
अर्थ-मत्स्य मांस का परित्याग, नग्नता, शरीर पर मैल धारण करना, खुरदरा चर्म रखना, अग्निहोत्र की उपसेवा, अन्य भी लोक में प्रचलित दीर्घ तपस्यायें, मन्त्रपूर्वक आहुतियां देना, शीतोष्णादि सहन करना ये उस मनुष्य को शुद्ध नहीं करते जिसकी तृष्णा निवृत्त नहीं हुई है।
१-सुत्तनिपात में ग्रामगन्ध सम्बन्धी बुद्ध का वार्तालाप तिष्य नामक
ब्राह्मण के साथ होने का लिखा है, परन्तु हमने यह सम्बाद बुद्ध और पूरण काश्यप के बीच होना बताया है, क्योंकि गौतम बुद्ध के पहले अन्य बुद्धों का होना, अथवा उनके सुत्तों का अस्तित्व किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता । यदि बुद्ध के पहले काश्यप बुद्ध का शासन होता
और उसके धर्म के नियम प्रतिपादन करने वाले शास्त्र होते तो संन्यास लेकर गौतम को अन्यान्य संन्यासियों के पास धार्मिक शिक्षा लेने नहीं जाना पड़ता, परन्तु बुद्ध अनेक संन्यासियों के पीछे फिरे, उनके सम्प्रदाय के धार्मिक नियम सीखे, उनकी तपस्याओं का आचरण किया, फिर भी उन्हें बोधिज्ञान प्राप्त न हुमा तब उन्होंने अपनी खोज से मध्यम मार्ग निकाला और उसी के अनुसार अपना नया धार्मिक सम्प्रदाय स्थापित किया है। इससे निश्चित है कि गौतम बुद्ध के पहले किसी बुद्ध का शासन तथा सम्प्रदाय प्रचलित नहीं था। विपस्सी
आदि छ: अथवा दीपङ्कर आदि चोबीस बुद्धों की कहानियां पीछे से गढ़ी गई मालूम होती हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org