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( ४४५ ) सचिव ने दूतावास में जाकर राजसभा म न आन का कारण पूछा । उत्तर में दूत ने कहा मैं पहले ही दिन सभा में आने के लिये निकला तो रक्तपट भिक्षु सामने मिले, अपशकुन समझ कर वापस लौट गया। दूसरे तीसरे दिन भी राजा साहब के पास आने को निकला तो वैसे ही रक्तवस्त्रधारी भिक्षु सामने मिले और अपशकुन हुए जान कर मैं फिर निवृत्त हो गया । दूत की यह बात सुनकर राज सचिव ने कहा महाशय ! इस देश में शेरी के भीतर या बाहर कहीं भी ये भिक्षु मिले तो भी इनका दर्शन अपशकुन नहीं माना जाता । यह कहकर मन्त्री ने मुरुण्ड के दूत को राजसभा में प्रवेश करवाया।
उपयुक्त घृतान्त से दो बातें फलित होती हैं एक तो यह कि मुरुण्ड के समय में पेशावर के आस पास बौद्ध भिक्षुओं की संख्या इतनी अधिक बढ गई थी कि लोग उन्हें सर्व साधारण मनुष्य के रूप में देखते थे। । दूसरी यह कि पाटलिपुत्र उसके आस पास के अनेक देशों में रक्तवस्त्र वाले भिक्षुओं का दर्शन अपशकुन माना जाता था। इसका अर्थ यह है कि मुरुण्ड के समय में उत्तर भारत में बौद्ध भिक्षु अति विरल संख्या में कदाचित् ही दृष्टिगोचर होते थे।
इसवी सन् चार सौ के लगभग भारत की यात्रा करने वाले चीनी यात्री पाहियान सांकांश्य देश के सम्बन्ध में अपनी यात्रा विवरण में लिखता है;
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