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सिकन्दर का दास हो गया था। इसी लिये वह निन्दास्पद समझा जाता है । किन्तु मण्डेनिस की प्रशंसा की जाती है, क्योंकि जब सिकन्दर के दूतों ने ज्युस के पुत्र के निकट जाने के लिये उसे निमन्त्रण दिया तब वह नहीं गया, यद्यपि दूतों ने जाने पर पारि तोषिक देने की और नहीं जाने पर दण्ड देने की प्रतिज्ञा की थी। उसने कहा कि सिकन्दर ज्युस का पुत्र नहीं है क्योंकि वह आधी पृथ्वी का भी अधिपति नहीं है । अपने लिये उसने कहा कि मैं ऐसे मनुष्य का दान नहीं लेना चाहता जिसकी इच्छा किसी वस्तु से पूर्ण नहीं होती और उसकी धमकी का मुझे डर नहीं है, क्योंकि यदि मैं जीवित रहा तो भारतवर्ष मेरे भोजन के लिये बहुत देगा और यदि मैं मर गया तो वृद्धावस्था से क्लिष्ट इस अस्थि चर्म के शरीर से मुक्त होकर मैं उत्तम और पवित्र जीवन प्राप्त करूँगा । सिकन्दर ने आश्चर्यान्वित होकर उसकी प्रशंसा की और उसकी इच्छानुसार उसे छोड दिया ।
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( मेगास्थनीज भारत विवरण पृ० ६२ )
इसी सम्बन्ध में पञ्च चत्वारिंशत् पत्र खण्ड मेएरियन ७-२३-६ के आधार पर लिखा है ।
"इससे विदित होता है कि यद्यपि सिकन्दर यश प्राप्त करने की घोर इच्छा के वशीभूत था, तथापि वह उत्तम पदार्थों को परखने की शक्ति में सर्वथा रहित नहीं था । जब वह तक्ष शिला पहुंचा और दिगम्बर दार्शनिकों को देखा तब उनमें से एक की अपने सम्मुख बुलाने की उसे इच्छा हुई, क्योंकि उनकी सहिष्णुता
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