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के समय वे वेद-पाठ अवश्य करते थे, परन्तु ज्यों ज्यों वे उपस्थिति में पहुँचते जाते थे त्यों त्यों उनका वेदपाठ छूटता जाता था ।
वेदसंहिताओं के रचयिता गृहस्थ ब्राह्मण ऋषि होते थे। वे अपने तथा अन्यों के लिये देवताओं को सन्तुष्ट करने के हेतु यज्ञ यागादि किया करते थे, उनको राजाओं तथा धनाढ्य गृहस्थों से वैदिक अनुष्ठानों द्वारा अनेक प्रकार के लाभ होते थे, और बड़े बड़े राजाओं महाराजाओं से परिचय भी बढ़ता जाता था ! उधर संन्यासी लोग बस्तियों से दूर अपने आत्म-चिन्तन में लगे रहते थे, न उनको धनाढ्यों के परिचय की आवश्यकता थी, न धनाढ्य और राज्यसत्ताधारी उनसे अधिक परिचित र ते थे। इस परिस्थिति में ब्राह्मण अपनी कृति वेदों में उनका वर्णन करके क्यों दुनियां को दृष्टि में उनका महत्त्व बढ़ाते ?
जैसे वेद ब्राह्मणों की कृतियां थीं, उसी प्रकार संन्यासियों की भी अपनी कृतियां होती थी । जिनमें उनके अपने यम, नियम, योगानुष्ठानों का विधान और तत्त्व विचार की चर्चा होती थी। जिस प्रकार ब्राह्मण लोग वेद तथा उनके अङ्ग ग्रन्थों का निर्माण करके वैदिक साहित्य का सर्जन करते रहते थे, उसी प्रकार विद्वान् संन्यासी भी अपने अभिप्रेत विषय के साहित्य का निर्माण करते रहते थे। जिस प्रकार ब्राह्मणों को संन्यासी तथा उनके लम्प्रदायों को अपेक्षा नहीं होती थी, उसी प्रकार संन्यासियों की दृष्टि वैदिक साहित्य के सम्बन्ध में रहती थी। ये दोनों साथ
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