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केश - रोम-नख-श्मन विन्द्यान्नापि कत्त येत् । स्यजञ्छरीर-सौहार्द, वनवासरतः शुचिः ॥१०॥
अर्ध---गृहस्थ अथवा ब्रह्मचारी जब बनवास का आश्रय ले तम तब वह वस्त्रधारी अथवा वल्कलधारी बन कर वन में बगैर बोये अन्य वान्यों का भोजन करने वाला मुनि बने
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वह मानव वस्ती से दूर निर्जनस्थान में अपना श्राश्रम बनाये और वहां रहता हुआ भी पञ्च महा यज्ञों को न छोड़े, और नीवार ( वन्य त्रीहि आदि ) वन्यधान्यों से अभि होत्र करे ।
ब्रह्मचारी वानप्रस्थ, श्रवण से अभि को स्थापित करके पचमा यज्ञ की विधि से यज्ञ करे |
वन में वास करने वाला वर्षा ऋतु में खुले आकाश में सोने, शीत सहन करे और प्रीष्म ऋतु में पचाग्नि के पास बीच बैठ कर धूप सहन करे ।
केश, रोम, नख और मूंछ न उखाड़े न काटे | बनवास में रहने वाला शरीर का मोह छोड़ता हुआ पवित्र रहे !
उक्त तीनों आश्रमों की पहचान बताते हुए दक्ष स्मृतिकार कहते हैं :
मेखलाजिनदण्डैश्व, ब्रह्मचारीति लक्ष्यते । गृहस्थो दानवेदाद्यैः, नखलामैर्वनाश्रमी ||
अर्थ - मेखला, मृगचर्म, तथा दण्ड से ब्रह्मचारी पहचाना आता है, दान और वेदाध्ययन से गृहस्थाश्रमी की पहिचान होती
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